Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 747
________________ अ०७/प्र०२ यापनीयसंघ का इतिहास / ५५१ मान लेने के लिये क्या प्रमाण है? जब 'ऐल' नाम से कोई वंश ही प्रचलित नहीं था, तो खारवेल अपने लेख में उसका निर्देश कैसे कर सकते थे? ___ "हिमवन्त-थेरावलीगत खारवेल-विषयक वृत्तान्त को अप्रामाणिक ठहराने के लिये बाबू कामताप्रसाद जी जैन ने अपनी तरफ से जो जो दलीलें पेश की थीं, उनका संक्षिप्त उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। अब हमारे मत से तो यह बात निश्चित हो गई है कि 'हिमवंत-थेरावली' कोई आधुनिक रचना नहीं है, किन्तु सैकड़ों वर्षों का पुराना निबन्ध है। इसकी मूल प्रति कच्छमांडवी के पुस्तकभण्डार से हमें पण्डित सुखलाल जी संघवी के द्वारा अभी मिली है, जिसका विस्तृत-अवलोकन कभी मौका मिलने पर लिखा जायगा, पर इतना तो यहाँ कह देना प्रासंगिक होगा कि थेरावली पराना ग्रन्थ है. यही नहीं वह एक अति महत्त्व का ऐतिहासिक ग्रन्थ है। अन्त में इसको हिमवंत-कृत लिखा है, पर अभी हम यह निश्चित नहीं कह सकते हैं कि यह हिमवंतकृत थेरावली ही है या हिमवंत-थेरावली का सार? हिमवंत-थेरावली-नामक प्राचीन थेरावली श्वेताम्बरजैन-साहित्य में एक प्रसिद्ध ग्रन्थ होने का प्रमाण हमें अञ्चलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग की विक्रम संवत् १४३८ में निर्मित पट्टावली में मिलता है।२९ यही नहीं, थेरावली की अनेक अप्रसिद्ध बातों का समर्थन भी इस पट्टावली से होता है।३० "हमें जो थेरावली की पुस्तक हस्तगत हुई है, वह अञ्चलगच्छ-पट्टावली की पुस्तक के प्रथम के ९ पत्रों में लिखी हुई है और इसके बाद अञ्चलगच्छ की बृहत्पट्टावली लिखी हुई है,, यह संपूर्ण प्रति संवत् १८९३ में लेखक रामचन्द्र द्वारा नागोर में लिखी गई थी, यह बात इस पुस्तक के अन्त में दिये हुए निम्नलिखित वचनों से जानी जाती है १२९. "बलिस्सह स्थविर के प्रसंग में पट्टावलीकार ने एक जगह हिमवंत-थेरावली का स्पष्ट नामोल्लेख तक कर दिया है, जो इस प्रकार है-"बलिस्सहमुनिवराश्च पश्चात् स्वपरिवारयुता-सस्थविरकल्पमभजन्। परं तेषां शाखा पृथगेव वाचकगणाख्यया प्रसिद्धा जाता। तत्परिवारश्च पूर्वमेवार्यहिमवद्विरचितस्थविरावल्यां कथितोऽस्ति ततोऽवसेयः।" (अञ्चलगच्छपट्टावली / १५-२) लेखक। ["यह उल्लेख पट्टावली में कहीं प्रक्षिप्त तो नहीं, इसे तथा और भी दूसरे उल्लेखों को खास तौर से जाँचने की जरूरत है। क्योंकि थेरावली और पट्टावली दोनों के प्रकाशक महाशय एक हैं और उनकी स्थिति पं० सुखलाल जी से बहुत कुछ. संदिग्ध मालूम हुई है।" सम्पादक।] अनेकान्त / वर्ष १/किरण ६,७ पृ. ३५०।। १३०. "आचार्य भद्रबाहु और आर्यमहागिरि का कुमरगिरि पर स्वर्गवास होने का हिमवन्त थेरावली में उल्लेख है और उसी बात का इस अञ्चलपट्टावली से भी समर्थन होता है। इसमें कई जगह कुमरगिरि और भिक्षुराज का नामोल्लेख भी है, जो हिमवन्तथेरावली के वचनों का ही समर्थन कर रहा है।" लेखक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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