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अ० ७ / प्र० १
यापनीयसंघ का इतिहास / ५०५ भी है, जो चालुक्यवंश के तैलपदेव से प्रारम्भ होता है। इसमें शांतिवर्म और उनकी रानी चन्द कब्बी का भी विशेष उल्लेख है। शांतिवर्म ने जो जैनमंदिर बनवाया था, उसके लिए उन्होंने भूमिदान किया था । इसमें कुछ साधुओं के नाम दिए हैं, जो यापनीयसंघकण्डूगण के थे। इनके नाम हैं बाहुबलिदेव (भट्टारक), (जिनकी उपमा चंद्र, सिंह आदि से की है), रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दी, शुभचंद्र, सिद्धान्तदेव, मौनिदेव और प्रभाचंद्रदेव आदि । १३ डॉ० पी० बी० देसाई ने होसुर ( सौदत्ति, जिला बेलगाँव) के एक दूसरे लेख का विवरण दिया है, जिसमें यापनीयसंघ के कण्डूरगण के उपदेशकों (साधुओं, गुरुओं) का उल्लेख है, जिनके नाम हैं शुभचंद्र प्रथम, चन्द्रकीर्ति, शुभचंद्र द्वितीय, नेमिचन्द्र, कुमारकीर्ति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय । १४
" पता चला है कि बेलगाँव की दोड्ड वसदि में भ० नेमिनाथ की प्रतिमा है जो किसी समय किले के मन्दिर में थी। इसमें जो पीठिका - लेख है, उससे पता चलता है कि यापनीय संघ के पारिसय्य ने १०१३ ई० में इस मन्दिर का निर्माण कराया था, जिसे साहणाधिपति (संभवतः कदम्बशासक जयकेशी के दण्डनायक) की माता कत्तय्य और जक्कव्वे ने कल्लहविळ (गोकम के पास ) ग्राम की भूमि दान में दी थी। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि पारिसय्य साधु या गुरु नहीं थे, अपितु कोई सामान्यजन थे, जिनके यापनीयसंघ से घनिष्ठ संबंध रहे होंगे, इसीलिए उनका विशेषतया उल्लेख किया गया है । १५ १०२० ई० के रढवग् - लेख में स्पष्ट लिखा है कि हूविनवागे की भूमि का दान दण्डनायक दासिमरस नें विख्यात यापनीयसंघपुन्नागवृक्षमूलगण के प्रसिद्ध उपदेशक (आचार्य) कुमारकीर्ति पंडितदेव को किया था । १६ १०२८-२९ ई० के होसुर ( धारवाड ) लेख में लिखा है कि पोसवूर के आच्छ - गवुण्ड ने सुपारी के बाग एवं कुछ घर वसदि (मन्दिर) को दान में दिए थे । यहाँ यापनीयसंघ (पुन्नागवृक्षमूल पूरा नहीं पढ़ा जाता ) के गुरु जयकीर्ति का स्पष्ट उल्लेख है । १७ हूलि का विवरण दो भागों में उपलब्ध है, प्रथम, चालुक्यवंशी आहवमल्ल सोमेश्वर (१०४४ ई०) का, दूसरा, जगदेवमल्ल के लिए तथा इनसे संबंधित साधुओं के लिए अनुदान की व्यवस्था है । हूलि के प्रथम विवरण में यापनीयसंघ - पुन्नागवृक्षमूल के बालचन्द्र भट्टारकदेव का उल्लेख है तथा दूसरे में रामचन्द्रदेव का विशेष उल्लेख है । १८
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१३. Journal of the B.B.A.A.S.X 71-72, teut pp. 206-7.
१४. Jainism in South India p. 165.
१५. जिनविजय (कन्नड) जनवरी १९३१ ।
१६. Journal of the Bombay Historical Society iii pp. 102-200.
१७. S.II XII, No. 65, Madras 1940.
१८. E.I.XVIII, Also P. B. Desai, Ibidem pp. 174F.
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