Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 714
________________ ५१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०२ the bones of their Master, establish the fact that the Jainas (at any rate the Digambaras) observed the practice of erecting monuments on the remains of their teachers ---" by माननीय काशीप्रसाद जी जायसवाल ने यापज्ञापक शब्द से जो 'यापनीय-आचार्य' अर्थ ग्रहण किया है वह उनकी महान् भ्रान्ति है। वस्तुतः वे इस विषय में अन्त तक अनिश्चय की स्थिति में रहे हैं, क्योंकि यहाँ उन्होंने यापज्ञापक शब्द को यापनीयआचार्यों का वाचक बतलाया है, तो एक अन्य आलेख में उसका अर्थ 'श्वेताम्बर मुनि' किया है। नागरीप्रचारिणी पत्रिका (भाग १०/ अङ्क ३) में वे लिखते है "इस लेख की १४वीं पंक्ति में लिखा है कि राजा ने कुछ जैन साधुओं को रेशमी कपड़े और उजले कपड़े नजर किये-"अरहयते पखीनसंसितेहि कायनिसीदीयाय यापञवकेहि राजभितिनि चिनवतानि वासासितानि" अर्थात् "अर्घयते प्रक्षीणसंसृतिभ्यः कायनिषीद्यां यापज्ञापकेभ्यः राजभृतीश्चीनवस्त्राणि वासांसि सितानि।" "इससे यह विदित होता है कि श्वेतवस्त्र धारण करने वाले जैन साधु , जो कदाचित् यापज्ञापक कहलाते थे, खारवेल के समय में अर्थात् प्रायः १७० ई० पू० (११० विक्रमाब्द पूर्व) भारत में वर्तमान थे, मानो श्वेताम्बर जैन शाखा के वे पूर्वरूप थे। 'चीन' गिलगिट की एक जाति को कहते थे। इन्हें अब शीन कहते हैं। ये सदा से रेशम बनाते हैं। खारवेल ने कुमारीपर्वत पर, जहाँ पहले महावीर स्वामी या कोई दूसरे जिन उपदेश दे चुके थे, क्योंकि उस पर्वत को सुपवतविजयचक्र (सुप्रवृत्तविजयचक्र) कहा है, स्वयं कुछ दिन तपस्या, व्रत उपासकरूप से किया और लिखा है कि जीव-देह का भेद उन्होंने समझा। इससे सिद्ध हुआ कि तपस्या, जीवदेह का दार्शनिक विचार आदि उसी समय से अथवा उसके आगे से जैनधर्म में चला आता है।" ६० इतना ही नहीं, माननीय जायसवाल जी ने एक अन्य लेख में 'यापज्ञापक' की जगह पापज्ञापक (पापों को बतानेवाले अर्थात् पापों से सावधान करनेवाले) पाठ ग्रहण किया है। इससे उसके यापनीय-आचार्यों का वाचक होने का आधार ही समाप्त हो जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी पापज्ञापक शब्द के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं 59. JBORS., Vol. IV, pp. 338-90, quoted by Shantaram Bhalchandra Deo, in his book 'History of Jain Monachism' on pages 95-96. ६०. 'श्री खारवेलप्रशस्ति और जैनधर्म की प्राचीनता'/ नागरी प्रचारिणी पत्रिका / भाग १० / अङ्क ३ ('अनेकान्त'/ वर्ष १/ किरण ४ / फाल्गुन, वीर निर्वाण सं. २४५६/ वि० संवत् १९८६/ पृष्ठ २४२ से उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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