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३२८/जैनपरम्परा और यापनीयसंघ/ खण्ड १
अ०४/प्र०२
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अचेल काश्यप द्वारा वर्णित आजीविकों का आचार एक बार अचेल काश्यप गौतम बुद्ध के पास जाकर पूछते हैं-"भो गौतम! लोग कहते हैं कि श्रमण गौतम सभी प्रकार की तपश्चर्याओं की निन्दा करते हैं।८३ आप बतलायें कि श्रमणब्राह्मणों के ये आचार श्रमणभाव और ब्राह्मणभाव के द्योतक हैं या नहीं?"८४ तत्पश्चात् वे श्रमणब्राह्मणों के आचार का इस प्रकार वर्णन करते हैं
"अचेलको होति मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो, न एहिभद्दन्तिको, नतिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं न निमन्तनं सादियति। सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्टितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं न मसं, न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिवति। सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको; एकिस्सा पि दत्तिया यापेति, द्वीहि पि दत्तीहि यापेति, सत्तहि पि दत्तीहि यापेति; एकाहिकं पि आहारं आहारेति, द्वीहिकं पि आहारं आहारेति, सत्ताहिकं पि आहारं आहारेति; इति एवरूपं अद्धमासिकं पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति।"(महासीहनादसुत्त / दीघनिकायपालि / भा.१ / पृ.१७६-१७७)।
गौतम बुद्ध इस आचार को श्रमण-ब्राह्मणत्व से शून्य बतलाते हैं। उन्होंने भी कुछ समय के लिए इस आचार को अपनाया था। वे अपने शिष्य सारिपुत्र को यह बात सुनाते हुए कहते हैं
- "तत्रास्सु मे इदं, सारिपुत्त, तपस्सिताय होति-अचेलको होमि मुत्ताचारो हत्थापलेखनो, न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उहिस्सकतं न निमन्तनं सादयामि --- इति एवरूपं अद्धमासिकं पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरामि।" (महासीहनादसुत्त / मज्झिमनिकायपालि/१.मूलपण्णासक/पृ. ११८-११९ बौद्धभारती, वाराणसी)।
८३. "एकमन्तं ठितो खो अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच-"सुतं मेतं, भो गोतम! समणो
गोतमो सब्बं तपं गरहति।" महासीहनादसुत्त / दीघनिकायपालि / भाग १/ पृ. १७२ । ८४. "इमे पि खो, आवुसो गोतम! तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्जसङ्घाता च ब्रह्मज्ञ
संङ्खाता च।" महासीहनादसुत्त / दीघनिकायपालि / भाग १/पृ. १७६ । ८५. वही/पृ.१७८।
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