________________
३८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ शिल्प में मूर्तित अर्धफालकधारी साधुओं का सम्प्रदाय श्वेताम्बरसम्प्रदाय से पूर्ववर्ती नहीं था, अपितु बाद में उदित हुआ था।
२. उक्त शिल्प में मूर्तित एक साधु के बायें हाथ में एक वस्त्रखण्ड लटक रहा है और कन्धे पर पीछे की तरफ रजोहरण या झोली टॅगी हुई है, जिसे साधु ने दायें हाथ से पकड़ रखा है। इनके अलावा उसके पास और कोई उपकरण नहीं है। शरीर पर कटिवस्त्र और मुँह पर मुखवस्त्रिका तक नहीं है। डॉक्टर सा० का कथन है कि इस साधु के वेश से सूचित होता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में श्वेताम्बर और यापनीय संघों के उदय के पूर्व भगवान् महावीर के अनुयायी जैनश्रमण इतने ही उपकरण रखते थे। अर्थात् डॉक्टर सा० के मतानुसार मथुराशिल्प में मूर्तित जैनसाधु प्राश्वेताम्बर-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के साधु थे।
___ यह कथन तथ्य के विपरीत है, क्योंकि बोटिककथा के अनुसार ईसा की प्रथमशती में स्थविरकल्पिक साधु विद्यमान थे। वे तीन सूती-ऊनी प्रावरण, कटिवस्त्र (चोलपट्ट), मुखवस्त्रिका, रजोहरण, सात प्रकार का पात्रनिर्योग और एक मात्रक, इस प्रकार चौदह उपकरण रखते थे। तथा जिस जिनकल्प का विच्छेद होना माना गया है, उसे अपनानेवाले साधुओं को भी कटिवस्त्र और मात्रक छोड़कर शेष बारह उपकरणों का धारी बतलाया गया है। आचारांग में भी नग्न रहने में लज्जा का अनुभव करनेवाले एवं शीतादिपरीषहसहन में असमर्थ साधुओं को कटिवस्त्र तथा आवश्यकतानुसार एक से लेकर तीन तक सूती-ऊनी कल्प (प्रावरण) ग्रहण करने की अनुमति दी गयी है। वीरनिर्वाणसंवत् ७२ में आचार्य शय्यम्भव-कृत दशवैकालिकसूत्र में भी संयम और लज्जा की रक्षा के लिए साधु के द्वारा वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रौंछन का उपभोग किया जाना आगमोक्त बतलाया गया है। प्राचीन ग्रन्थ उत्तराध्ययन में भी उपर्युक्त उपकरणों एवं मुखवस्त्रिका के ग्रहण किये जाने का विधान है। (उत्तरा.१७/९,२६/२३-जै.ध.या.स./ पृ.४७० / पा.टि.२)।
इस प्रकार ईसा की प्रथम शती में श्वेताम्बरग्रन्थ-वर्णित साधु अनेक उपकरण रखते थे। किन्तु मथुराशिल्प में मूर्तित साधु इन बहुविध उपकरणों से रहित हैं। उनके शरीर पर कटिवस्त्र और मुंह पर मुखवस्त्रिका भी नहीं है। अतः वे श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित स्थविरकल्पिक या जिनकल्पिक साधु नहीं हैं, अपितु किसी अन्य जैनसम्प्रदाय के साधु हैं। वस्त्र को कटि पर लपेट कर नहीं, अपितु हाथ पर लटका कर नग्नता को ढंकने का प्रयत्न करनेवाले साधुओं के उस सम्प्रदाय को आचार्य हरिषेण ने बृहत्कथाकोश के भद्रबाहुकथानक में अर्धफालकसंघ कहा है
अर्धफालकसङ्घस्ते महादेवि न शोभनः। न चायं वस्त्रसंवीतो न नग्नः सविडम्बनः॥ ७४॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org