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४५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०६/प्र०१ दुर्भिक्ष समाप्त होने पर विशाखाचार्य सर्वसंघसहित दक्षिणापथ से मध्यप्रदेश लौट आये। इधर रामिल्ल, स्थूल तथा भद्राचार्य भी अपने-अपने संघसहित सिन्धुदेश से लौट आये। वहाँ भी दुर्भिक्ष पड़ गया था। उन्होंने आकर अपना वृतान्त सुनाया। बोले-वहाँ दूसरे देशों से भूखे लोग आकर घर के दरवाजों पर भोजन के लिए शोर मचाते थे, जिससे घर के लोग दिन में भोजन नहीं कर पाते थे। इसलिए वे रात को भोजन बनाकर खाते थे। उन्होंने हम लोगों से कहा-"आप लोग भी रात्रि में पात्र लाकर हमारे घरों से अन्न ले जाया करें और अपने स्थान में जाकर दिन में खा लिया करें।" हम लोग वैसा ही करने लगे
रामिल्लः स्थविरो योगी भद्राचार्योऽप्यमी त्रयः। ये सिन्धुविषये याताः काले दुर्भिक्षनामनि॥ ४७॥ पानान्नभोजनहींने काले लोकस्य भीषणे। आगत्य सहसा प्रोचुरिदं ते जनसन्निधौ॥ ४८॥ वैदेशिकजनैःस्थैः कृतकोलाहलस्वनैः। पितापुत्रादयो लोका भोक्तुमन्नं न लेभिरे॥ ४९॥ लोको निजकुटुम्बेन बुभुक्षाग्रस्तचेतसः। साधयित्वान्नमाबालं तद्भयान्निशि वल्भते॥ ५०॥ भवन्तोऽपि समादाय निशि पात्राणि मद्गृहात्। नूनं कृत्वाऽन्नमेतेषु गत्वा देशिकतो भयात्॥ ५१॥ स्वश्रावकगृहे पूते भूयो विश्रब्धमानसाः। साधवो हि दिने जाते कुरुध्वं भोजनं पुनः॥ ५२॥ तल्लोकवचनैरिष्टैर्भोजनं प्रीतमानसैः। अनेन विधिनाऽऽचार्यैः प्रतिपन्नमशेषतः॥ ५३॥
भद्रबाहुकथानक। एक बार एक दुबला-पतला नग्न मुनि हाथ में भिक्षापात्र लिये एक श्रावक के घर में घुसा। उस घर की नववधू जो गर्भिणी थी, अन्धकार में मुनि को देखकर डर गई और उसका गर्भपात हो गया। तब श्रावकों ने साधुओं के पास जाकर कहा-"समय बड़ा खराब है। जब तक अच्छा समय नहीं आता, तब तक आप लोग बायें हाथ में आगे की तरफ अर्धफालक (वस्त्र का आधा खण्ड) लटका कर और दाहिने हाथ में पात्र लेकर भिक्षा के लिये आया करें और अपने स्थान में जाकर दिन में भोजन किया करें। जब सभिक्ष हो जायेगा, तब प्रायश्चित्त कर पुनः तप करने लगें।" श्रावकों के वचन सुनकर यतिगण वैसा ही करने लगे
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