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अ० ४ / प्र० २
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३१७ निर्ग्रन्थ चार संवरों से संवृत रहता है । इसीलिए लोक में निर्ग्रन्थ को संसार के विषयों का अनिच्छुक (गतत्तो), संयमी ( यतत्तो) और स्थिरवृत्ति (ठिततो) कहा जाता है।"
तीर्थंकर महावीर की 'निर्ग्रन्थ' संज्ञा क्यों?
उपर्युक्त सात सम्प्रदायों के प्रणेताओं में पाँच नग्न नहीं रहते थे, इसलिए वे निर्ग्रन्थ नाम से प्रसिद्ध नहीं हुए। मक्खलिगोसाल (आजीविक सम्प्रदाय का प्रवर्तक) और तीर्थंकर महावीर नग्न रहते थे, तथापि मक्खलिगोसाल अहेतुवादी था अर्थात् वह मानता था कि प्राणियों के सुख-दुःख का कोई कारण नहीं है, वे मात्र संयोगजन्य हैं, अतः दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति के लिए रागद्वेषादि विकारों के परित्याग का उसके मत में कोई भी स्थान न होना स्वाभाविक है। इसलिए उसका नग्न रहना अपरिग्रहसिद्धान्त पर आधारित नहीं था । फलस्वरूप वह 'निर्ग्रन्थ' संज्ञा का पात्र नहीं हुआ। केवल भगवान् महावीर का नाग्न्यव्रत अपरिग्रह-सिद्धान्त से प्रसूत था, अतः वे ही 'निर्ग्रन्थ' विशेषण के अधिकारी हुए ।
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अन्यतीर्थिकवत् नग्न रहने का निषेध
पूर्वोक्त छह बौद्धेतर दार्शनिकों को बौद्धसाहित्य में अन्यतीर्थिक या तीर्थिक कहा गया है। ७४ उनमें आजीविक (मक्खलिगोशाल के अनुयायी साधु) और निर्ग्रन्थ नग्न रहते थे, शेष अन्यतीर्थिक बौद्ध भिक्खुओं से भिन्न वेषभूषा धारण करते थे । गौतम बुद्ध अपने भिक्खुओं को इन तीर्थिकों का वेष धारण करने से सदा मना करते थे । महावग्ग की नग्गिकपटिक्खेपकथा में कहा गया है
" एक समय कोई भिक्षु नग्न होकर भगवान् (गौतम बुद्ध) के पास गया। पास में जाकर बोला- भगवान् ने (आपने ) अनेक प्रकार से इच्छाओं को अल्प करने वाले, सन्तुष्ट, सल्लेख (तपस्वी), धुत (अनासक्त), प्रसन्न, अपरिग्रही एवं पौरुषवान् भिक्खु की प्रशंसा की है । भन्ते ! यह नग्नता साधक को उपर्युक्त गुणों के विकास में सहायक होती है। अतः अच्छा हो, भन्ते! कि आप भिक्षुओं को नग्न रहने की अनुमति दे दें । भगवान् ने उस भिक्षु के कथन की निन्दा करते हुए कहा - 'ओ निकम्मे आदमी ! तेरा यह कथन अयुक्त है, अनुचित है, अप्रतिरूप (अननुकूल) है, श्रमणाचार के विरुद्ध है, अतः अविहित एवं अकरणीय है। मोघपुरुष ! तूने तीर्थिकों (अन्यतीर्थिकों) के द्वारा
७४. क- "छ अञ्ञतित्थिया" सामञ्ञफलसुत्तं / दीघनिकायपालि / भा. १ / पृ. ५२ । " अञ्ञतित्थिया परिब्बाजिका" / महासीहनादसुत्त / वही / पृ. १८४ ।
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