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१९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० ३ / प्र० २
होने के कारण गौणशब्द कहलाता है । जैसे 'गौर्वाहीक:' (वाहीकदेशवासी पुरुष बैल है), यहाँ बैल में रहनेवाले जाड्य-मान्द्य आदि गुणों के समान जाड्यमान्द्य आदि गुणों का वाहीक में योग होने से उसमें बैल के वाचक गोशब्द और गोत्वरूप अर्थ का उपचार किया गया है । "
यहाँ भी अन्य वस्तु पर अन्य वस्तु या उसके धर्म का आरोप करने को उपचार नाम दिया गया है। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के वाचक शब्द और अर्थ के आरोप को उपचार कहा गया है। ये आरोपित शब्द और अर्थ गौण - शब्द और गौण - अर्थ अथवा उपचरित-शब्द और उपचरित-अर्थ कहलाते हैं।
श्वेताम्बराचार्य वैयाकरण - काव्यशास्त्री हेमचन्द्र ने भी कहा है – “ मुख्यार्थबाधे निमित्ते प्रयोजने च भेदाभेदाभ्यामारोपितो गौणः ।" (काव्यानुशासन १ / १५ ) । अर्थात् मुख्यार्थ का बाध तथा निमित्त और प्रयोजन के होने पर भेद और अभेदपूर्वक २२ जो आरोपित किया जाता है वह गौण अर्थ कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र उपर्युक्त सूत्र की स्वीपज्ञवृत्ति में कहते हैं - " गुणेभ्य आयतत्वाद्गौणः । तद्विषयः शब्दोऽपि गौणः उपरि चोच्यते ।" अर्थात् गुणों के निमित्त से आरोपित होने के कारण उसे गौण अर्थ कहते हैं। उस गौण अर्थ का विषयभूत शब्द भी गौण या उपचरित कहलाता है। ५. २. उपचार के नियम
उपचार के कुछ नियम होते हैं । उन नियमों के अनुसार जब किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का आरोप किया जाता है, तभी वह उपचार कहलाता है। आचार्य देवसेन ने आलापपद्धति के निम्नलिखित सूत्र (२१२) में उपचार के नियमों का वर्णन किया है
"मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने चोपचारः प्रवर्तते । "
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अनुवाद- 'वस्तु में जिस धर्म का उपचार किया जाना है, वह धर्म जब उस वस्तु में स्वभावतः न हो तथा उस धर्म के उपचार का कोई सादृश्यादिसम्बन्धरूप निमित्त हो और उपचार करने का कोई प्रयोजन भी हो, तभी उपचार प्रवृत्त होता है ।"
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जैसे 'यह बालक सिंह है' इस वाक्य में बालक पर सिंह के सिंहत्वरूप धर्म का आरोप किया गया है। बालक स्वभावतः सिंह नहीं है, किन्तु उसमें सिंह के क्रौर्यशौर्यादि गुणों के समान क्रौर्यशौर्यादि गुण हैं, जिनके कारण उस पर सिंहत्व का आरोप किया
३२. “तत्र सादृश्ये निमित्ते भेदेनारोपितो यथा - ' गौर्वाहीक : ' । इदं वक्ष्यमाणरूपकालङ्कारस्य बीजम् । अभेदेन यथा - ' गौरेवायम्' इति । इदमतिशयोक्तिप्रथमभेदस्य ( बीजम् ) ।" काव्यानुशासन-स्वोपज्ञवृत्ति १ / १५ ।
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