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२६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ तच्छ्रुत्वा नापितमाह-"भगवन्! वेम्यहं युष्मद्धर्मम्। परं भवतो बहुश्रावका आह्वयन्ति। साम्प्रतं पुनः पुस्तकाच्छादनयोग्यानि कर्पटानि बहुमूल्यानि प्रगुणीकृतानि। तथा पुस्तकानां लेखनाय लेखकानां च वित्तं सञ्चितमास्ते। तत्सर्वथा कालोचित्तं कार्यम्।" ततो नापितोऽपि स्वगृहं गतः। तत्र च गत्वा खदिरमयं लगुडं सज्जीकृत्य कपाटयुगलं द्वारि समाधाय सार्धप्रहरैकसमये भूयोऽपि विहारद्वारमाश्रित्य सर्वान् क्रमेण निष्क्रामतो गुरुप्रार्थनया स्वगृहमानयत्। तेऽपि सर्वे कर्पटवित्तलोभेन परिचितान् श्रावकान् परित्यज्य प्रदृष्टमनसस्तस्य पृष्ठतो ययुः। अथवा साध्विदमुच्यते
एकाकी गृहसन्त्यक्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। सोऽपि संवाह्यते लोके तृष्णया पश्य कौतुकम्॥"
(पञ्चतन्त्र / अपरीक्षितकारक) पंचतंत्र की इस कथा से ज्ञात होता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में जैनेतर सम्प्रदाय के लोग भी दिगम्बरजैन मुनियों के प्रति प्रदर्शित किये जानेवाले विनयोपचार, उनके द्वारा दिये जानेवाले आशीर्वाद के प्रकार एवं उनकी आहारचर्या की पद्धति से सुपरिचित थे, जो इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बरजैन मुनिपरम्परा ईसा की तीसरी शताब्दी से भी बहुत पहले अस्तित्व में थी।
भासकृत 'अविमारक' (३०० ई०) में वस्त्रविहीन श्रमण
महाकवि भास संस्कृत के सुप्रसिद्ध नाटककार हैं। ये कालिदास के पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि कालिदास ने अपने 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में इनका उल्लेख किया है। ए० बी० कीथ कालिदास का समय ४०० ई० के लगभग मानते हैं, अतः उनके अनुसार भास ३०० ई० के लगभग विद्यमान थे। किन्तु डॉ० बलदेव उपाध्याय ने अन्तरंग और बहिरंग प्रमाणों के आधार पर कहा है कि भास का समय पंचम या चतुर्थ शती विक्रमपूर्व मानना न्यायोचित है। डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी, टी० गणपति शास्त्री, म० म० हरप्रसाद शास्त्री तथा ए० डी० पुसालकर द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के आधार पर भास की स्थिति ईसा से चार या पाँच शताब्दी पूर्व युक्तिसंगत मानते हैं।
भास ने अपने नाटक 'अविमारक' में नग्न श्रमण का उल्लेख किया है। विदूषक नलिनिका से कहता है
८. संस्कृतसाहित्य का इतिहास / पृ.४९१-४९४। ९. संस्कृतसाहित्य का अभिनव इतिहास / पृ.१२७-१२८ ।
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