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१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०१ उसका उल्लेख करने से 'भगवती-आराधना' ग्रन्थ उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के उत्तराधिकारी यापनीय आचार्य द्वारा रचित है।
३. कल्पित लक्षण-सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि यापनीयसिद्धान्तों का प्रतिपादक होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण है। ऐसे ग्रन्थ का कर्ता होना यापनीयग्रन्थकार का लक्षण है। किन्तु 'भगवती-आराधना' में ये लक्षण उपलब्ध नहीं होते । फिर भी उसके कर्ता शिवार्य को इस कारण यापनीय मान लिया गया है कि उनके गुरुओं के नाम दिगम्बर पट्टावलियों में नहीं मिलते। इस प्रकार कल्पित लक्षण के आधार पर एक दिगम्बरग्रन्थ पर यापनीयग्रन्थ की मोहर लगा दी। कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि दिगम्बरग्रन्थों में भी यापनीयग्रन्थ के लक्षण नहीं है, किन्तु उनकी कुछ गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से मिलती-जुलती हैं, अतः इसे ही यापनीयग्रन्थ का लक्षण मान लिया गया और इस कल्पित लक्षण के आधार पर निर्णय दे दिया गया कि ये ग्रन्थ यापनीय-आचार्यों की कृतियाँ हैं।
इन काल्पनिक मतों एवं कल्पित शब्दादि को हेतुरूप में प्रस्तुत कर श्वेताम्बर सन्तों एवं विद्वानों ने दिगम्बरमत को अर्वाचीन, अतीर्थंकर-प्रणीत निह्नवमत, लज्जाजनक, संयमविरोधी, मोक्ष के प्रतिकूल एवं अग्राह्य, आचार्य कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शताब्दी में उत्पन्न तथा दिगम्बरसाहित्य को यापनीय या श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करने की चेष्टा की है। इसलिए इन मतों की कपोलकल्पितता का उद्घाटन सर्वप्रथम आवश्यक है, जिससे जहाँ भी इनका हेतुरूप में प्रयोग कर उपर्युक्त निर्णय करने का प्रयत्न किया गया है, वहाँ पाठकों को यह समझने में देर न लगे कि यह हेतु कपोलकल्पित है, इसलिए इससे किया गया निर्णय भी कपोलकल्पित है, मिथ्या है। अतः अगले अध्याय में यही किया जा रहा है।
इन हेतुओं की कपोलकल्पितता दृष्टिगोचर हो जाने पर पाठक पायेंगे कि ऐसा कोई भी हेतु विद्यमान नहीं है, जो दिगम्बरमत को अर्वाचीन, अतीर्थंकर-प्रणीत निह्नवमत, लज्जाजनक, संयमविरोधी एवं मोक्षमार्ग के प्रतिकूल तथा दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ या श्वेताम्बरग्रन्थ एवं आचार्य कुन्दकुन्द को ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के बाद का सिद्ध कर सके। विभिन्न अध्यायों में प्रस्तुत किये जानेवाले प्रमाणों और युक्तियों का परामर्श कर विज्ञ पाठकों के ज्ञानचक्षु इस तथ्य का साक्षात्कार करेंगे कि सवस्त्रमुक्ति-विरोधी दिगम्बरपरम्परा ऐतिहासिक दृष्टि से कम से कम पाँच हजार वर्ष पुरानी है और कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों के कर्ता दिगम्बराचार्य ही हैं।
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