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१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
१८
सप्तभंगी के विकास की कल्पना
सप्तभंगी-विकासवाद भी डॉ० सागरमल जी की ऐसी ही कल्पना है । वे लिखते हैं—“उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ' में गुणस्थान और सप्तभंगी की अनुपस्थिति स्पष्टरूप से यह सूचित करती है कि ये अवधारणाएँ उनके काल तक अस्तित्व में नहीं आयी थीं, अन्यथा आध्यात्मिक विकास और कर्मसिद्धान्त के आधारभूत गुणस्थानसिद्धान्त को वे कैसे छोड़ सकते थे?" (जै. ध. या.स./ पृ. २४९-२५० ) । आगे लिखते हैं- " फिर भी इतना सुनिश्चित है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का आधार वे ही आगम ग्रन्थ रहे हैं, जो क्वचित् पाठभेदों के साथ श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित हैं और यापनीयों में भी प्रचलित थे। इससे इस भ्रान्ति का भी निराकरण हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना का आधार षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थ हैं, क्योंकि ये ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती हैं और गुणस्थान, सप्तभंगी आदि परवर्ती युग में विकसित अवधारणाओं के उल्लेखों से युक्त हैं।" (जै. ध. या.स./ पृ. २५२ ) ।
अ० १
इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि डॉ० सागरमल जी ने नयप्रमाण- सप्तभंगी को भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत न मान कर परवर्ती आचार्यों द्वारा चौथी शताब्दी ई० के अन्त तक विकसित किया गया माना है और ऐसा मानने का उद्देश्य है आचार्य धरसेन एवं कुन्दकुन्द को उमास्वाति से अर्वाचीन सिद्ध करना । इस सप्तभंगी - विकासवाद की कपोलकल्पितता भी दशम अध्याय में उद्घाटित की जायेगी ।
१९
यापनीयों द्वारा अर्धमागधी-आगमों के शौरसेनीकरण की कल्पना
तीसरी कल्पना यह की गई है कि उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा (श्वेताम्बर -यापनीयों की मातृपरम्परा) के आगम अर्धमागधी प्राकृत में थे । यापनीयों को जब वे उत्तराधिकार में प्राप्त हुए, तब उन्होंने उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित कर दिया। इसलिए शौरसेनी में होते हुए भी वे दिगम्बरग्रन्थ नहीं है, अपितु यापनीयग्रन्थ हैं।
यहाँ एक अत्यन्त सीधासादा प्रश्न उठता है कि आखिर यापनीयों ने अर्धमागधी आगमों का शौरसेनीकरण क्यों किया, जब कि अर्धमागधी श्वेताम्बरों के अनुसार दिव्यध्वनि की भाषा थी और पाँचवीं शताब्दी ई० में वलभीवाचना के समय तक अच्छी तरह समझी और प्रयुक्त की जाती थी? इससे उन्हें क्या लाभ हुआ ? इस प्रश्न का कोई समाधान न होने से सिद्ध है कि यह मात्र एक कपोलकल्पना है ।
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