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की भांति उन्होंने अपने धर्म-शास्त्रों को नहीं छिपाया और उनके छपन व छपाने में बाधक नहीं हुए। जैनियों को महासभा ने बारम्बार यही प्रस्ताव पास किया कि छापा धर्म विरुद्ध है। इसका परिणाम यह हुआ कि अब तक लोगों को यह प्रकट नहीं हुआ कि जैनधर्म वास्तव में क्या है और कब से प्रारम्भ हुआ और इसकी शिक्षा क्या है; कौन कौन से नीति और नियम जैनियों को मान्य हैं तथा उनकी कानूनी पुस्तके वास्तव में क्या क्या हैं। रा० ब० बा० जुगमन्दर लाल जैनी बैरिस्टर-एट-ला भूत पूर्व चीफ़ जज हाईकोर्ट इन्दौर ने प्रथम बार इस कठिनाई का अनुभव करके जैन-ला नामक एक पुस्तक सन् १६०८ ई० में तैयार की जिसको स्वर्गीय कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन आरा-निवासी ने १६१६ ई० में प्रकाशित कराया। परन्तु यह भी सुयोग्य सम्पादक को अधिक अवकाश न मिलने एवं जैन समाज के प्रमाद के कारण अपूर्ण ही रही और इसके विद्वान् रचयिता ने विद्यमान नीति-पुस्तकों में से कुछ के संग्रह करने और उनमें से एक के अनुवाद करने पर ही संतोष किया। किन्तु इसके पश्चात् उन्होंने जैन-मित्र-मण्डल देहली की प्रार्थना पर वर्धमान नीति तथा इन्द्र नन्दी जिन संहिता का भी अनुवाद कर दिया है। इन अनुवादों का उपयोग मैंने इस ग्रन्थ में अपने इच्छानुसार किया है जिसके लिए अनुवादक महोदय ने मुझे मैत्री-भाव से सहर्ष प्राज्ञा प्रदान की। मगर तो भी जैनियों ने कोई विशेष ध्यान इस विषय की ओर नहीं दिया। हाँ, सन् १९२१ ई० में जब डाक्टर गौड़ का हिन्दू-कोड प्रकाशित हुआ
और उसमें उन्होंने जैनियों को धर्म-विमुख हिन्दू (Hindu dissenters ) लिखा उस समय जैनियों ने उसका कुछ विरोध किया और जैन-लॉ कमेटी के नाम से अँगरेज़ी-भाषा-विज्ञ वकीलों, शास्त्रज्ञ पण्डितों
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