Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 14
________________ हैं जो मूल संघ की शाखा पुष्कर गच्छ के पट्टाधीश थे। इनका ठीक स्थान विदित नहीं है। ६-श्रीआदिपुराणजी-यह ग्रन्थ भगवजिनसेनाचार्य कृत है जो ईसवी सन की नवीं शताब्दी में हुए हैं जिसको अब लगभग १२०० वर्ष हुए हैं। वर्तमान काल में बस इतने ही ग्रन्थों का पता चला है जिनमें नीति का मुख्यतः वर्णन है। परन्तु इनमें से किसी में भी सम्पूर्ण कानून का वर्णन नहीं मिलता है। तो भी मेरा विचार है कि जो कुछ अङ्ग उपासकाध्ययन का लोप होने से बच रहा है वह सब कानून की कुल आवश्यकीय बातों के लिए यथेष्ट हो सकता है। चाहे उसका भाव समझने में प्रथम कुछ कठिनाइयों का सामना पड़े। गत समय में निरन्तर दुर्घटनाओं एवं बाह्य दुराचारों के कारण जैन मत का प्रकाश रसातल अथवा अन्धकूप में छिप गया। जब अँगरेज़ आये तो जैनियों ने अपने शास्त्रों को छिपाया व सरकारी न्यायालयों में पेश करने का विरोध किया। एक सीमा तक उनका यह कृत्य उचित था क्योंकि न्यायालयों में किसी धर्म के भी शास्त्रों का कोई मुख्य सम्मान नहीं होता। कभी कभी न्यायाधीश और प्रायः अन्य कर्मचारी शास्त्रों के पृष्ठों के लौटने में मुँह का थूक लगाते हैं जिससे प्रत्येक धार्मिक हृदय को दुःख होता है। परन्तु इस दुःख का उपाय यह नहीं है कि शास्त्र पेश न किये जावें। क्योंकि प्रत्येक कार्य समय के परिवर्तनों का विचार करते हुए अर्थात् जैन सिद्धान्त की भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से, होना चाहिए। जैनियों के शास्त्रों को न्यायालयों में प्रविष्ट न होने देने का परिणाम यह हुआ कि अब न्यायालयों ने यह निर्णय कर लिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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