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भूमिका जैन-लॉ एक स्वतन्त्र विभाग दाय भाग ( jurisprudence ) के सिद्धान्त का है। इसके आदि रचयिता महाराजा भरत चक्रवर्ती हैं जो प्रथम तीर्थङ्कर भगवान आदि नाथ स्वामी ( ऋषभदेवजी) के बड़े पुत्र थे ।
यह सब का सब एक-दम रचा गया था। इसलिए इसमें वह चिह्न नहीं पाये जाते हैं जो न्यायाधीशावलम्बित (judge-made = जज मेड ) नीति में मिला करते हैं, चाहे पश्चात् सामाजिक प्रावश्यकताओं एवं मानवी सम्बन्ध के अनुसार उसमें किसी किसी समय पर कुछ थोड़े बहुत ऐसे परिवर्तनों का हो जाना असम्भव नहीं है जो उसके वास्तविक सिद्धान्त के अविरुद्ध हो। जैन नीति विज्ञान उपासकाध्ययन शास्त्र का अङ्ग था जो अब विलीन हो गया है। वर्तमान जैन-ला की आधारभूत अब केवल निम्नलिखित पुस्तकें हैं
१-भद्रबाहु संहिता, जो श्री भद्रबाहु स्वामी श्रुतकेवली के समय का जिन्हें लगभग २३०० वर्ष हुए न होकर बहुत काल पश्चात का संग्रह किया हुआ ग्रन्थ जान पड़ता है तिस पर भी यह कई शताब्दियों का पुराना है। इसकी रचना और प्रकाश सम्भवतः संवत् १६५७-१६६५ विक्रमी अथवा १६०१-१६०६ ई० के अन्तर में होना प्रतीत होता है। यह पुस्तक उपासकाध्ययन के ऊपर निर्भर की गई है। इसके रचयिता का नाम विदित नहीं है ।
* ई० जि० सं० ५३-५५ ।
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