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यदि सौभाग्यवश पति कहीं पृथक् दशा में मरा तो विधवा की सम्पत्ति मिली किन्तु वह भी हीन हयाती रूप में । कुछ भी उसने धर्मकार्य वा आवश्यकता के निमित्त व्यय किया और मुकदमाछिड़ा | रोज़ इसी भाँति के सहस्रों मुक़दमे न्यायालयों में उपस्थित रहते हैं जिनसे कुटुम्ब व्यर्थ ही नष्ट होते हैं और परस्पर शत्रुता बँधती है। जैन-लॉ में इस प्रकार के मुकदमे ही नहीं हो सकते ।
पुत्र की उपस्थिति में भी विधवा का मृत पति की सम्पत्ति को स्वामिनी की हैसियत से पाना वास्तव में अत्यन्त लाभदायक है । इससे पुत्र को व्यापार करने का साहस होता है और वह आलस्य और जड़ता से बचता है। इसके सिवा उसको सदाचारी और आज्ञाकारी बनना पड़ता है । जितना धन विषय सुख और हरामखोरी में नये नवाब व्यय कर देते हैं; यदि जैन - ला के अनुसार सम्पत्ति उनको न मिली होती तो वह सर्वथा नष्ट होने से बच जाता यही कारण है कि जैनियों में सदाचारी व्यक्तियों की संख्या अन्य जातियों की अपेक्षा अधिकतर पाई जाती है। यह विचार, कि पुत्र के न होते हुए विधवा धन अपनी पुत्री और उसके पश्चात नाती अर्थात् पुत्री के पुत्र को दे देगी, व्यर्थ है । हिन्दू-लॉ में भी यदि पुत्र नहीं है और सम्पत्ति विभाज्य है तो विधवा के पश्चात् पुत्री और उसके पश्चात् नाती ही पाता है । पति के कुटुम्ब के लोग नहीं पाते हैं वरन हिन्दू-लों के अनुसार तो नाती ऐसी विधवा की सम्पत्ति को पावेहीगा क्योंकि विधवा पूर्ण स्वामिनी नहीं होती है वरन् केवल यावज्जीवन अधिकार रखती है । यदि वह इच्छा भी करे तो भी नाती को अनधिकृत करके पति के भाई भतीजों को नहीं दे सकती । इसके विरुद्ध जैन-लॉ में विधवा सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होती है । पुत्री या नाती का कोई अधिकार नहीं होता । अतः यदि उसके
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