Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ २०६ जनहितपी हैं और सदा से ही भाव रखने पड़ते हैं जैसे सिद्ध है कि योद्धा लोग सदा यद्ध मनाते रहते कि आदिपुराणके निम्न लिखित श्लोकोंसे हैं जिसमें मर कर और अनकोको मार कर वह अपना कर्तव्य दिखावें और वशके भागी हों। चिरात्समरसमदः स्वामिनोऽयमभूदिह । युद्ध जो हिंसा होती है उसका कुछ नमूना किं वयं स्वानिसकारादतणीभवितुं क्षमाः ॥ १४२॥ पर्व ४४ के कार दिये हुए ३ श्लोकोसे मालूम हो पोषति नहीपाला भृत्यानक्सरं प्रति । सकता है । भगवान आदिनाथके पोते अर्ककीर्ति न चेदवसरः सार्यः किमेभिस्तृणमानुषैः ॥ १४३॥ और जयकुमारमें सुलोचनाक स्वयम्जर के समय कलेवरमिदं त्याच्यमर्जनीयं यशोधनं । जो युद्ध हुआ था उसका वर्णन करते हुए इन जयश्रीविजये लभ्या नाल्पोदकॊ रणोत्सवः ॥ १४ ॥ लोकोंमें लिखा है कि विद्याधरोंके बाणोंसे बहदंतिदंतार्गलप्रोतागलदंत्रस्खलद्वचाः । तसे हाथी घोड़े मारे गये । उनके बाण शत्रुजयलक्ष्मीकटाक्षाणां कदाहलक्ष्यतां भजे ॥ १४९ ॥ ऑका रुधिर पीने और मांस खानेके वास्ते -आदिपुराण पत्र, ३५ । नीचा मुख किये इस प्रकार आ रहे थे जैसे. दूरपाताय नो किंतु दृढपातार बैचरैः । खगाः कोतमाकृष्य मुक्ता हन्युट्टिपादिकान् ॥१४५॥ पापी नरकमें जाते हैं। रथके पहियोंके संघट्टनसे अधोमुखाः गर्मुक्तः रक्तपानात्पलाशनात् । मुर्दोकी लाशें पिस गई थी और उनमेंसे निकले पृषत्काः साहसो वेयुर्नरकंवाऽबनेरथः ॥ १४६ ॥ हए रुधिर और मांससे ऐसी कीच होगई थी कि चक्रसंघसंपिष्टशवासृड्यांसकर्दमे । उसमें रथ इस प्रकार फिरते थे, जैसे समुद्री नावें। रथकव्याश्चरंति स्म तत्राब्धी मंदपोतवत् ।। १७९ ॥ अनियहिसे नाव और ऐसे कृत्य होनेसे -आदिपुराण, पर्व ४४। वे लोकिक दृष्टिसे कितने ही उत्तम समझे पर्व ३५ के उपर्यक्त , श्लोक उस समयके हे जावें; परन्तु धर्मदृष्टिसे किसी प्रकार भी उत्तम जब कि बाहुबलि और भरत युद्ध छिड़नेवाला नहीं समझे जा सकते हैं। एक दयावान् सद्गृथा। बाहुबलिके योद्धा उस समय युद्धकी खुशीमें हस्थ धर्मात्मा जो छोटेसे छोटे जीवकी हिंसासे आपसमें बातें करते हुए कह रहे हैं कि स्वार्माके भी बचना चाहता है, जो हिंसाको ही पाप यहाँ बहुत दिनों पछि युद्ध छिड़नेका है । और अहिंसाको ही धर्म समझता है, वह कभी स्वामीने अबतक जो हमारा पालन पोषण किया हथियार बाँधकर फौजमें भरती होना पसन्द है, उस कणसे अब हमारा छुटकारा होगा, नहीं करेगा, चाहे वह फौजका सबसे बड़ा अर्थात् उसका बदला हम अब लड़ाई में मरने अफसर ही बनाया जाता हो। बल्कि इसकी मारनेसे चुकावेंगे। इस समयके वास्ते ही राजा अपेक्षा वह शूद्रका नीचसे नीच ऐसा काम लोम सिपाहियोंका पालन किया करते हैं । यदि करना अच्छा समझेगा, जिसमें हिंसा न होती समय पर भी कोई काम न आया, तो ऐसे घास हो । यदि उस समय भगवान आदिनाथ राज्यकी फूसके बने हुए मनुष्यसे क्या लाभ ? अब यह तरफसे इस बातका कड़ा प्रबन्ध न करते कि शरीर छूटेगा और यश मिलेगा, इस कारण किसी भी वर्णका आदमी अपना पेशा छोड़कर यह युद्ध बहुत ही फलदायक होगा । वह दिन दूसरे वर्णका पेशा न करे, तो बहुत सम्भव कब आयेगा जब हाथियोंके दाँतोंमें मेरा शरीर है कि भगवानको केवलज्ञान प्राप्त होने पर पिरोया हुआ होगा और मेरी सब अंतड़ियाँ उनकी दिव्य ध्वनिके द्वारा अहिंसा धर्मका बाहर निकली हुई होंगी ! इन श्लोकोंसे स्पष्ट प्रवाह बहने पर अनेक क्षत्री अपने वर्णको छोड़-. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140