Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 71
________________ अङ्क ५-६) दर्शनसार विवेचना। २६३ NAHA.AAAAAAAAAAAAAAA... प्रति रायल एशियाटिक सुसाइटी ( बाम्बे बेंच ) जरनलके नं. १५ जिल्द १८ में छपी हुई है । यह बहुत ही अशुद्ध है । फिर भी इससे संशोधनमें सहायता मिली है। ५ इसमें सब मिलाकर १० मतोंकी उत्पत्ति बतलाई गई है । वे मत ये हैं-१ बौद्ध, २ श्वेताम्बर, ३ ब्राह्मणमत, ४ वैनयिक मत, ५ मंखलि-पूरणका मत, ६ द्राविडसंघ, ७ यापनीय संघ, ८ काष्ठासंघ, ९ माथुरसंघ, और १० भिल्लक संघ । इनमेंसे पहले पाँच तो कमसे एकान्त, संशय, विपरीत, विनयज, और अज्ञान इन पाँच मिथ्यात्वोंके भीतर बतलाये गये हैं, पर शेष पाँचको इन पाँच मिथ्यात्वोंमेंसे किसमें गिना जाय, सो नहीं मालूम होता। ३८ वी गाथामें काष्ठासंघके प्रवर्तक कुमारसेनको 'समयमिच्छत्तो' या समयमिथ्थाती विशेषण दिया है; संभव है कि काष्ठासंघके समान शेष चार मत भी समयमिथ्यातियोंके ही भीतर गिने गये हों। पर यदि ये समयमिथ्याती हैं, तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी क्यों न समयमिथ्याती गिना जाय ? अन्य लेखकोंने काष्ठासंघ आदिको 'जैनामास' बतलाया है; पर उन्होंने इनके साथ ही श्वेताम्बरोंको भी शामिल कर लिया है।यथाः गोपुच्छकः श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकः। निःपिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ -~~~-नीतिसार । । देवसेनके ही समान गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रने भी श्वेताम्बर सम्प्रदायको सांशयिक माना है; परन्तु यह बात समझमें नहीं आती कि श्वेताम्बर मत सांशयिक क्यों है। विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानको संशय माना है । अतएव संशयीका सिद्धान्त इस प्रकारका होना चाहिए. कि-न मालूम आत्मा है या नहीं, स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं या नहीं, इत्यादि। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायका तो ऐसा कोई सिद्धान्त मालूम नहीं होता। दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टि से उसके वस्त्रसहित मोक्ष मानना, स्त्रियोंको मोक्ष मानना, चाहे जिसके घर प्रासुक भोजन करना, आदि सिद्धान्त 'विपरीत' हो सकते हैं न कि — संशयमिथ्यात्व ' । इसके सिवाय 'स्त्रीमुक्ति' और 'केवलिभुक्ति ' ये दो बातें तो श्वेताम्बरोंके समान यापनीय सम्प्रदाय मी मानता है; पर वह ‘सांशयिक' नहीं, समयमिथ्याती ही बतलाया गया है। ६ तीसरी और चौथी गाथामें बतलाया है कि ऋषभदेवका पोता तमाम मिथ्यामतप्रवर्तकोमें प्रधान हुआ और उसने एक विचित्र मत रचा, जो आगे हानिवृद्धिरूप होता रहा । भगवज्जिनसेनके आदिपुराणसे मालूम होता है कि इस पोतेका नाम मरीचि था, जिसके विषयमें लिखा है: मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिव्राइभूयमास्थितः । मिथ्यात्ववृद्धिमकरोदपसिद्धान्तभाषितैः ॥ ६१॥ तदुपज्ञमभूद्योगशास्त्रं तंत्रं च कापिलम् ।। येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ॥ ६२॥ अर्थात् भगवान्का पाता मरीचि भी ( अन्यान्य लोगोंके साथ ) परिव्राजक हो गया था। उसने असत्सिद्धान्तोंके उपदेशसे मिथ्यात्वकी वृद्धि की। योगशास्त्र ( पतनलिका दर्शन ) और कापिल तंत्र ( सांख्यशास्त्र ) को उसीने रचा, जिनसे मोहित होकर यह लोक सम्यग्ज्ञानसे विमुख हुआ! आदिपुराणके इन श्लोकोंसे मालूम होता है कि सांख्य और योगका प्रणेता मरीचि है; परन्तु वास्तवमें सांख्यदर्शनके प्रणेता कपिल और योगशास्त्रके कर्ता पतअलि हैं । दर्शनसारकी चौथी गाथासे इसका समाधान इस रूपमें हो जाता है कि मरीचि इन शास्त्रोंका साक्षात् प्रणेता नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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