Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 123
________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। ३१५ एकका साहित्य दूसरेके साहित्यसे यहाँतक अनुष्टुप् छंदका रूप न देसकने आदि किसी मिलता जुलता है कि एकको दूसरेकी नकल कहना कारणविशेषसे, ज्योंका त्यों भिन्न भिन्न छंदोंमें कुछ भी अनुचित न होगा। श्वेतांबर 'धर्मपरीक्षा' भी रहने दिया है; जिससे अन्तमें जाकर ग्रंथका जो इस लेखका परीक्षाविषय है, दिगम्बर अनुष्टुप्छंदी नियम भंग हो गया है । अस्तु; 'धर्मपरीक्षा ' से ५७५ वर्ष बादकी बनी हुई है। इन पाँचों पद्योंमेंसे पहला पद्य नमूनेके तौरपर इस लिए यह कहनेमें कुछ भी संकोच नहीं हो इस प्रकार है:राकता कि पद्मसागर गणीने अपनी धर्मपरीक्षा 'इदं व्रतं द्वादशभेदभिन्नं, अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा ' परसे ही बनाई है यः श्रावकीयं जिननाथदृष्टम् । और वह प्रायः उसकी नकल मात्र है । इस नक- करोति संसारनिपातभोतः लमै पद्मसागर गणीने अमितगतिके आशय, ढंग प्रयाति कल्याणमसौ समस्तम् ॥ १४७६ ॥ (शैली) और भावोंकी ही नकल नहीं की, बल्कि यह पद्य अमितगति-धर्मपरीक्षाके १९ वें परिउसके अधिकांश पद्योंकी प्रायः अक्षरशः नकल च्छेदमें नं० ९७ पर दर्ज है । इस पथके बाद कर डाली है और उस सबको अपनी कृति बनाया एक पा और इसी परिच्छेदका देकर तीन पद्य है, जिसका खुलासा इस प्रकार है-पद्मसागर २० वें परिच्छेदसे उठाकर रक्खे गये हैं, जिनके गणीकी धर्मपरीक्षामें पद्योंकी संख्या कुल १४८४ नम्बर उक्त परिच्छेदमें क्रमशः ८७, ८८ और है । इनमेंसे चार पद्य प्रशस्तिके और छह पद्य ८९ दिये हैं । इस २०वें परिच्छेदके शेष सम्पूर्ण मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञाके निकालकर शेष १४७४ पयोंको, जिनमें धर्मके अनेक नियमोंका निरूपद्यों से १२६० पद्य ऐसे हैं, जो अमितगतिकी पण था, ग्रंथकर्ताने छोड़ दिया है। इसी प्रकार धर्मपरीक्षासे ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं। दूसरे परिच्छेदोंसे भी कुछ कुछ पय छोड़े गये वाकी रहे २१४ पद्य, वे सब अमितगतिके पद्यों परसे हैं, जिनमें किसी किसी विषयका विशेष कुछ परिवर्तन करके बनाये गये हैं। परिवर्तन वर्णन था। अमितगति-धर्मपरीक्षाकी पद्यसंख्या प्रायः छंदोभेदकी विशेषताको लिये हुए है। कल १९४१ है जिसमें २० पद्योंकी प्रशस्ति अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका पहला परिच्छेद और भी शामिल है, और पद्मसागर-धर्मपरीक्षाकी शेष १९ परिच्छेदोंके अन्तके कुछ कुछ पद्य पद्यसंख्या प्रशस्तिसे अलग १४८० है; जैसा अनुष्टुप छन्दमें न होकर दूसरेही छंदोंमें रचे गये कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। इसलिए हैं। पद्मसागर गणीने उनमेंसे जिन जिन पद्योंको संपूर्ण छोड़े हुए पद्योंकी संख्या लगभग ४४० लेना उचित समझा है, उन्हें अनुष्टुप् छन्दमें बदल- समझनी चाहिए। इस तरह लगभग ४४० पद्योंको कर रख दिया है, और इस तरहपर अपने ग्रंथमें निकालकर, २१४ पयोमें कुछ छंदादिकका अनुष्टप् छंदोंकी एक लम्बी धारा बहाई है । इस परिवर्तन करके और शेष १२६० पयोंकी ज्याकी धारामें आपने परिच्छेद भेदको भी बहा दिया त्यों नकल उतारकर ग्रंथकर्ता श्रीपद्मसागर गणीने है; अर्थात् अपने ग्रन्थको परिच्छेदों या अध्यायोंमें इस ‘धर्भपरीक्षा' को अपनी कृति बनानेका विभक्त न करके उसे बिना हालटिंग स्टेशन पुण्य संपादन किया है । जो लोग दूसरोंकी वाली एक लम्बी और सीधी सहकके रूपमें बना कृतिको अपनी कृति बनाने रूप पुण्य संपादन दिया है । परन्तु अन्तमें पाँच पद्योंको, उनकी करते हैं उनसे यह आशा रखना तो व्यर्थ रचनापर मोहित होकर अथवा उन्हें सहजमें है कि वे उस कृतिके मूल कर्ताका आदर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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