Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 125
________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। ग्रंथ न समझा जाकर श्वताम्बर समझ लिया चिल्ला उठना और कहना कि स्कंदने मेरे पिताको जाय:-- मार डाला है । ऐसा करनेपर राजा स्कंदद्वारा " सुमंगलसुनन्दाख्ये कन्ये सह पुरंदरः। मुझे मरा जानकर स्कंदको दंड देगा जिससे वह जिनेन योजयामास नीतिकर्तीि इवामले ।। १३४७ पुत्रसहित मरजायगा । इत्यादि। इस प्रकरणके इन प्रकार, यद्यपि ग्रंथकर्ता महाशयने अमि- तीन पद्य इस प्रकार हैं:तगतिकी कृतिपर अपना कर्तृत्व और स्वामित्व एष यथा क्षयमेति समूलं कंचन कर्म तथा कुरु वत्स । येन स्थापित करने और उसे एक श्वेताम्बर ग्रंथ वसामि चिरं सुरलोके हृष्टमनाः कमनीयशरीरः ॥८॥ बनानेके लिए बहुत कुछ अनुचित चेष्टाएँ की क्षेत्रममुष्य विनीय मृतं मां यष्टि निषष्णतनुं सुत कृत्वा। हैं परन्तु तो भी वे इस (धर्मपरीक्षा ) ग्रंथको गौमहिषीहयवृन्दमशेषं सस्य समूहविनाशि विमुंचा८९॥ पूर्णतया श्वेताम्बर ग्रंथ नहीं बना सके। बल्कि वृक्षतृणान्तरितो मम तोरे तिष्ठ निरीक्षितुमागतिमस्य । अनेक पद्योंको निकाल डालने, परिवर्तित कर कोपपरेण कृते मम घाते पूरकुरु सर्वजनश्रवणाय ॥ ९०॥ देने तथा ज्योंका त्यों कायम रखनेकी वजहसे इन तीनों पद्योंके स्थानमें पद्मसागर गणीने उनकी यह रचना कुछ ऐसी विलक्षण और अपनी धर्मपरीक्षामें निम्नलिखित दो पय अनुष्टुप् दोषपूर्ण हो गई है, जिससे ग्रंथकी चोरीका छंदमें दिये हैं:सारा भेद खल जाता है। साथ ही, ग्रंथकर्ताकी समूलं क्षयमेत्येष यथा कर्म तथा कुरु । योग्यता और उनके दिगम्बर तथा श्वेताम्बर धर्म- वसामि यत्स्फुरदेहः स्वर्ग हृष्टमनाः सुखम् ॥ २८३ ॥ सम्बंधी परिज्ञान आदिका भी अच्छा परिचय वृक्षाद्यन्तरितस्तिष्ठ त्वमस्यागतिमीक्षितुम् । मिल जाता है। पाठकोंके संतोषार्थ यहाँ इन्हीं आयातेऽस्मिन्मृतं हत्वा मो पूत्कुरु जनश्रुतेः ॥ २४॥ सब बातोंका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है:- इन पद्योंका अमितगतिके पद्योंके साथ मिला (१) अमितगति-धर्मपरीक्षाके पाँचवें परि- न करनेपर पाठकोंको सहजहीमें यह मालूम हो च्छेदमें वक' नामके द्विष्ट पुरुषकी कथाका वर्णन जायगा कि दोनों पद्य क्रमशः अमितगतिके पद्य करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि जिस समय नं०८८ और ९० परसे कुछ छील छालकर बनाये ‘वक' मरणासन्न हुआ तन उसने अपने गये हैं। इनमें अमितगतिके शब्दोंकी प्रायः नकल ‘स्कंद ' नामक शत्रुका समूल नाश करनेके पाई जाती है । परन्तु साथही उन्हें यह जाननेमें लिए, पुत्रपर अपनी आन्तरिक इच्छा प्रगट की भी विलम्ब न होगा कि अमितगतिके पद्य नं० और उसे यह उपाय बतलाय कि ' जिस ८९ को पद्मसागरजीने बिलकुल ही छोड़ दिया समय मैं मर जाऊं उस समय तुम मुझे मेरे है-उसके स्थानमें कोई दूसरा पद्य भी बनाशत्रुके खेतमें ले जाकर लकड़ीके सहारे खड़ा कर कर नहीं रक्खा । इसलिए उनका पद्य नं. देना । साथ ही अपने समस्त गाय, भैंस तथा २८४ बड़ा ही विचित्र मालूम होता है। उसमें घोड़ोंके समूहको उसके खेतमें छोड़ देना, जिससे उस उपायके सिर्फ उत्तरार्धका कथन है, जो वक्रवे उसके समस्त धान्यका नाश कर देवें। और ने मरते समय अपने पुत्रको बतलाया था । उपातुम किसी वृक्ष या घासकी ओटमें मेरे पास यका पूर्वार्ध न होनेसे यह पद्य इतना असम्बद्ध बैठकर स्कंदके आगमनकी प्रतीक्षा करते रहना। और बेढंगा हो गया है कि प्रकृत कथनसे उसकी जिस वक्त वह क्रोधमें आकर मुझ पर प्रहार कुछ भी संगति नहीं बैठती। इसी प्रकारके पद्य करे तब तुम सब लोगोंको सुनानेके लिए जोरसे और भी अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं, जिनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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