Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 131
________________ अङ्क ७ धर्म-परीक्षा। शास्त्रों के प्रतिकूल है । श्वेताम्बरों के श्रीदेव- होगी । इस लिए सूर्यका दिया, हुआ होनेसे विजयगणिीवरचित 'पांडवचरित्र में पांडुको बालकका दूसरा नाम सूर्यपुत्र भी रक्खा गया । राजा विचित्रवीर्यका पुत्र लिखा है और श्वेताम्बरीय पांडवचरित्रके इस संपूर्ण कथनसे उसे 'मुद्रिका ' देनेवाले विद्याधरका नाम 'वि- पद्मसागरजीके पूर्वोक्त कथनका कहाँतक मेल है शालाक्ष ' बतलाया है । साथ ही यह भी और वह कितना सिरसे पैर तक विलक्षण है, लिखा है कि वह विद्याधर अपने किसी शत्रुके इसे पाठकोंको बतलानेकी जरूरत नहीं है । वे द्वारा एक वृक्षक नितम्बमें लोहेकी कीलोंसे कीलि- एक नजर डालते ही दोनोंकी विभिन्नता मालूम तथा। पांडुने उसे देखकर उसके शरीरसे वे लोहेकी कर सकते हैं । अस्तु; इसी प्रकारके और भी कीलें खींचकर निकाली; चंदनादिकके लेपसे अनेक कथन इस धर्मपरीक्षामें पाये जाते हैं जो उसे सचेत किया और उसके घावोंको अपनी दिगम्बरशास्त्रोंके अनुकूल तथा श्वेताम्बरमुद्रिकाके रत्नजलसे धोकर अच्छा किया । इस शास्त्रों के प्रतिकूल हैं और जिनसे ग्रंथकर्ताकी. उपकारके बदलेमें विद्याधरने पांडुको उसकी साफ चोरी पकडी जाती है। ऊपरके इन सब चिन्ता मालूम करके, अपनी एक अंगूठी दी विरुद्ध कथनोंसे पाठकोंके हृदयोंमें आश्चर्यके और कहा कि, यह अंगूठी स्मरण मात्रसे सब मनोवांछित कार्योंको सिद्ध करनेवाली है। इसमें साथ यह प्रश्न उत्पन्न हुए विना नहीं रहेगा कि 'जब गणीजी महाराज एक दिगम्बर ग्रंथको अदृश्यीकरण आदि अनेक महान् गुण हैं। जब गणाजा पाण्डने घरपर आकर उस अंगठीसे प्रार्थना श्वेताम्बरग्रंथ बनानेके लिए प्रस्तुत हुए थे तब की कि 'हे अंगठी, मझे कन्तिके पास ले चल.' आपने श्वेतांबरशास्त्रोंके विरुद्ध इतने अधिक अगूठीने उसे कुन्तीके पास पहुंचा दिया। उस कथनोंको उसमें क्यों रहने दिया ? क्यों उन्हें समय कुन्ती, यह मालूम करके कि उसका विवाह दूसरे कथनोंकी समान, जिनका दिग्दर्शन इस पाण्डुके साथ नहीं होता है, गलेमें फाँसी डाल- लेखके शुरूमें कराया गया है, नहीं निकाल दिया कर मरनेके लिए अपने उपवनमें एक अशोक या नहीं बदल दिया । उत्तर इस प्रश्नका सीधा .वृक्षके नीचे लटक रही थी। पांडने वहाँ पहँचते सादा यही हो सकता है कि या तो गणीजीको ही गलेसे उसकी फाँसी काट डाली और कंतीके श्वेताम्बरसम्प्रदायके ग्रंथों पर पूरी आस्था ( श्रसचेत तथा परिचित हो जानेपर उसके साथ द्धा) नहीं थी, अथवा उन्हें उक्त सम्प्रदायके भोग किया। उस एक ही दिनके भोगसे कुन्तीको ग्रंथोंका अच्छा ज्ञान नहीं था । इन दोनों गर्भ रह गया। बालकका जन्म होने पर धात्रीकी बातोंमेंसे पहली बात बहुत कुछ संदिग्ध मालूम सम्मतिसे कुन्तीने उसे मंजूषामें रखकर गंगामें होती है और उसपर प्रायः विश्वास नहीं बहा दिया । कुन्तीकी माताको कुन्तीकी आकृति किया जासकता । क्योंकि गणीजीकी यह आदि देखकर पूछनेपर पीछेसे इस कृत्यकी खबर कृति ही उनकी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-भक्ति हुई । वह मंजषा · अतिरथि ' नामके एक और साम्प्रदायिक मोहमुग्धताका एक अच्छा सारथिको मिला जिसने बालकको उसमेंसे निका- नमूना जान पड़ती है; और इससे लकर उसका नाम 'कर्ण' रक्खा । चूंकि उस आपकी श्रद्धाका बहुत कुछ पता लगजाता सारथिकी स्त्रीको, मंजूषा मिलेनेके उसी दिन है। इस लिये दूसरी बात ही प्रायः सत्य मालूम प्रातः काल, स्वममें आकर सूर्यने यह कहा था होती है । श्वेताम्बर ग्रंथोंसे अच्छी जानकारी न कि हे वत्स आज तुझे एक उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होनेके कारण ही आपको यह मालूम नहीं हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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