Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 124
________________ ३१६ जैनहितैषी [भाग १३ पूर्वक स्मरण करेंगे, प्रत्युत उनसे जहाँतक २-त्यक्तबाह्यान्तरपथो निःकषायो जिद्रियः । बन पड़ता है, वे उस कृतिके मूलकर्ताका परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ॥१८-७६। नाम छिपाने या मिटानेकी ही चेष्टा किया इस पद्यमें अमितगतिने साधुका लक्षण करते हैं । ऐसा ही यहाँपर पद्मसागर गणीने 'जातरूपधरः' अर्थात् नग्नादगम्बर बतलाया भी किया है । अमितगतिका कृतज्ञतापूर्वक है । साधुका लक्षण नग्नदिगम्बर प्रतिपादन करस्मरण करना तो दूर रहा, आपने अपनी नेसे कहीं दिगम्बर जैनधर्मको प्रधानता प्राप्त न शक्तिभर यहाँ तक चेष्टा की है कि ग्रंथभरमें हो जाय, अथवा यह ग्रंथ किसी दिगम्बर जैनअमितगतिका नाम तक न रहने पावे और न की कृति न समझ लिया जाय, इस भयसे गणीदूसरा कोई ऐसा शब्द ही रहने पावे जिससे यह जी महाराजने इस पद्यकी जो कायापलट की ग्रंथ स्पष्ट रूपसे किसी दिगम्बर जैनकी कृति है वह इस प्रकार है:समझ लिया जाय । उदाहरणके तौरपर यहाँ त्यक्तबाह्यान्तरो ग्रंथो निष्कियो विजितेंद्रियः । इसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं:- परीषहसहः साधुभवाम्भोनिधितारकः ॥१३-७६॥ १-श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषमुषां साधोर्गुणाशंसिनी। यहाँ 'जातरूपधरो मतः ' के स्थानमें 'भनत्वा केवलिपादपंकजयुगं मामरेन्द्रार्चितम् ॥ वाम्भोनिधितारकः ' ( संसारसमुद्रसे पार करआत्मानं व्रतरत्नाभूषितमसौ चक्रे विशुद्धाशयो। नेवाला) ऐसा परिवर्तन किया गया है । साथ भव्यःप्राप्य यौगिरोऽमितगतर्व्यर्थाःकथं कुर्वते॥१०१॥ ही. 'निःकषायः' की जगह निष्क्रियः' ___ यह पद्य अमितगतिकी धर्मपरक्षिाके १९ वें भी बनाया गया है जिसका कोई दूसरा ही परिच्छेदका अन्तिम पद्य है। इसमें मुनिमहा- रहस्य होगा। राजका उपदेश सुनकर पवनवेगके श्रावक व्रत ३-कन्ये नन्दासुनन्दाख्ये कच्छस्य नृपतेर्वृषा । धारण करनेका उल्लेख करते हुए, चौथे चरणमें जिनेन योजयामास नीतिकीर्ती इवामले।।१८.२४१ लिखा है कि 'भव्यपुरुष अपरिमित ज्ञानके धारक दिगम्बर सम्प्रदायमें, ऋषभ देवका विवाह मुनिके उपदेशको पाकर उसे व्यर्थ कैसे कर राजा कच्छकी नन्दा और सुनन्दा नामकी सकते हैं। ' साथ ही इस चरणमें अमितगतिने दो कन्याओंके साथ होना माना जाता अन्यपरिच्छेदोंके आन्तिम पद्योंके समान युक्तिपूर्वक है । इसी बातको लेकर अमितगतिने. गुप्तरीतिसे अपना नाम भी दिया है । पद्मसागर उसका ऊपरके पद्यमें उल्लेख किया है। परन्तु गणीको अमितगतिका यह गुप्त नाम भी असह्य श्वेताम्बर सम्प्रदायमें, ऋषभदेवकी स्त्रियोंके नाहुआ और इस लिए उन्होंने अपनी धर्मपरीक्षामें, मोमें कुछ भेद करते हुए, दोनों ही स्त्रियोंको राजा इस पद्यको नं०१४७७ पर, ज्योंका त्यों उद्धृत कच्छकी पुत्रियें नहीं माना है । बल्कि सुमंगलाकरते हुए, इसके अन्तिम चरणको निम्न प्रकारसे को स्वयं ऋषभदेवके साथ उप्तन्न हुई उनकी बदल दिया है: सगी बहन बतलाया है और सुनन्दाको एक दूसरे "मित्रादुत्तमतो न किं भुवि नरः प्राप्नोति सद्वस्त्वहो।" युगलियेकी बहन बयान किया है जो अपनी ___ इस तबदीलीसे प्रगट है कि यह केवल अमि- बहनके साथ खेलता हुआ अचानक बाल्यावतगतिका नाम अलग करनेकी गरज़से ही की स्थामें ही मरगया था । इसलिए पद्मसागरजीने गई है, अन्यथा इस परिवर्तनकी यहाँपर कुछ अमितगतिके उक्त पद्यको बदलकर उसे नीचेका भी जरूरत न थी। रूप दे दिया है, जिससे यह ग्रंथ दिगम्बर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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