Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 93
________________ अङ्क ५-६ ] शिक्षा और परस्पर व्यवहारके साँचे में ढलकर स्त्रियोंकी दशा यहाँतक शोचनीय हो गई कि पुरुषोंके आधीन रहना ही उनका मुख्य कर्तव्य है, यह विश्वास उनके हृदयमें इतना दृढ़ होगया कि अब इस पर विचार करने के लिए यदि कोई उनसे विचार करने के लिए कहे या आग्रह करे तो भी वे तैयार नहीं हैं । इस परिपाटी के अनुसार ही धर्मशास्त्र, लोकव्यवहार, लोकविचार आदि सबकी भव्य इमारत इतनी मजबूत बना डाली गई कि जिससे स्त्रियोंको पराधीनताके पंजेसे छुड़ाने में कोई भी समर्थ न हो । और इन सब का यह परिणाम निकला कि स्त्रियोंको सदा पुरुषोंके अधीन रहना चाहिए । इस प्रकार स्त्रियोंको पराधीनताकी जंजीरमें जकड़कर उनके राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सत्र अधिकारों पर पुरुषोंने अधिकार जमा लिया । और फिर कहा जाने लगा कि स्त्रियाँ स्वाभाविक तौरसे ही पुरुषोंके आधीन हैं। पति के ऊपर ही स्त्रीका सारा दारोमदार है। उसका सुख - दुःख, मानापमान इत्यादि सब कुछ पतिकी इच्छा पर ही छोड़ दिया गया । अपने जन्मको सफल करने, संसारमें अपने मानापमानकी रक्षा और वृद्धि करने, संसारमें अपने लिए यश सम्पादन करने, ये सब बातें उन्हें अकेले प्राप्त कर लेने का कोई अधिकार नहीं । यदि वे उपर्युक्त बातोंको प्राप्त करना चाहें तो पतिकी सहायता बिना यह साध्य नहीं । यदि पति अनुकूल मिल गया और उसकी प्रसन्नता सम्पादन कर पाई तो ' येन केन प्रकारेण ' वह अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकती है । यदि ऐसा न हुआ तो उसे अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए मुँह से एक भी शब्द कहनेका अधिकार नहीं । 1 स्त्रियोंकी पराधीनता । इस व्यवस्था के प्रभावसे स्त्रियोंका जीवन पुरुषों के स्वाधीन होगया । वह जैसा चाहें उनके Jain Education International २८५ साथ व्यवहार करें, कोई रोक टोक नहीं । इस पराधीनताने स्त्रियोंको विवश किया कि वे विवाहबंधन में बँधकर पुरुषों के अधीन रहकर अपना जीवन व्यतीत करें। संस्कृत के किसी कविने इसी कारण शायद यह कह डाला कि “विना-ऽऽश्रयाः न तिष्ठन्ति पण्डिता वनिता लताः " अर्थात् विना आश्रयके पंडित, स्त्री और लता-वेल ठहर नहीं सकती । यद्यपि स्त्रीपुरुषकी उत्पत्ति, लय, स्वरूप, गुण, कर्म, स्वभावमें नाम मात्रका भेद है; परन्तु तो भी समानता के होते हुए भी उनके अधिकार समान नहीं रक्खे गये । इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्रीजाति बिलकुल पराधीन होगई और उसकी भलाई बुराईके रक्षक पुरुष बन बैठे । परन्तु यदि इतना ही होता तो भी कुछ ठीक था, उन्हें दूषणोंकी खान समझा गया, गुसांई तुलसीदासजी ने जो परमभक्त और मनुष्यमात्र के साथ सहानुभूति और प्रेम रखते थे उन्होंने भी स्पष्ट कहा है कि: " ताहि स्वभाव सत्य कवि कहीं । अवगुण आठ सदा उर रहहीं ॥ " अर्थात स्त्रियोंमें तो आठ अवगुण सदा रहा करते हैं । परन्तु पुरुष सदा गुणयुक्त होते हैं ! महात्मा कवियोंने भी पुरुष जातिके अन्याययुक्त वंशपरम्परागत विचारों पर विचार करना उचित न समझा, जो प्रथा प्रचलित हो गई थी, जो रूढ़ी पड़ गई थी, उसीको वे भी दुहराते गये । परिणाम यह निकला कि अब यदि कोई यह कहे कि स्त्रियों को भी स्वाधीनता चाहिए, उन्हें भी मानव समाजमें पुरुषोंके समान अधिकार मिलना चाहिए, उनकी पराधीनता नष्ट होनी चाहिए, तो लोग उसे या तो ' बहका हुआ कहते हैं या 'पागल' समझते हैं। और हमारे यहाँ हिन्दूसमाजमें तो इसकी चर्चा होना लोग धर्मविरुद्ध कार्य समझते हैं, धर्म की " For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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