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अङ्क ५-६]
प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं?
मंदिर
मान होता है कि धर्मसागरजीका यह कथन ये दो ही अवस्थायें हो सकती हैं । या तो वस्त्रामुख्यतः पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके बारेमें ही ठीक वस्था होगी (बल्कल और चर्म भी उपलक्षणसे है। ऊर्ध्वदेहस्थ प्रतिमाओंके लिए या तो उन्होंने इसीमें आ जाते हैं)-या नग्नावस्था होगी। इनके जाँच नहीं की, या पद्मासनस्थकी अपेक्षा उनकी व्यतिरिक्त कोई तीसरी अवस्था नहीं हो सकती। बहुत ही अल्पता होनेसे उपेक्षा कर दी, अथवा ऐसी दशामें मनुष्य जब कभी किसी देहधाउनका निर्माण विवाद कालसे अर्वाचीन माना हो। रीकी मूर्ति या चित्र निर्माण करेगा, तब इन अव___ यहाँ तक तो सब कथन एकट्टष्टिसे हुआ है, स्थाओंहीमेंसे किसी एक अवस्थासे युक्त करेगा। अर्थात् उपाध्यायजीके कथनमें कुछ सत्यांशका अभीतक क्या भारतवर्षमें और क्या अन्यत्र, स्वीकार करके यह विचार किया गया है। परंतु जितना मातया उपलब्ध हुई है अथव इसमें हेतु और परीक्षाकी दृष्टिसे भी विचार कर. और विहारादि स्थानोंमें स्थित हैं, वे सब इन दो नेकी आवश्यकता है । उपाध्यायजीके कथनमें ही अवस्था से किसी एक अवस्थावाली हैं। इतना तो सत्यांश सभी दृष्टिसे सिद्ध होता है कि उपाध्यायजीके कथनानुसार 'न नागी और मूर्तियोंमें जो साप्रदायिक भेदके चिह्न दिखाई न ढंकी' तो कहीं दृष्टिगोचार नहीं होती। देते हैं उनकी उत्पत्ति दिगम्बरश्वेताम्बरगत दिगम्बर संप्रदायमें तीर्थकरोंको सर्वथा मतभेदके प्रबल हो जाने बाद किसी न निथ-निर्वस्त्र होना माना है. इस लिए उस किसी एक खास निमित्तसे हुई है । क्यों कि विचारसे, उनकी मूर्तियाँ भी वैसी ही निर्वस्त्र यह तो सर्वानुभवसिद्ध ही है कि जब तक होनी चाहिएँ, और श्वेताम्बर संप्रदायमें तीर्थसंप्रदायभेद नहीं होने पाया था तब तक मूर्तिगत करोंको सर्वथा निर्वस्त्र नहीं माना है-निर्वस्त्रावभेदका अभाव स्वतःसिद्ध था। परंतु इस प्रकार स्थामें भी वे अपने अतिशयसे सर्वसाधारणको भेद होनेमें जो कारण ऊपर दी गई गाथाओं- सवस्त्र ही दृष्टिगोचर होते थे, इस कारण इस में,-उज्जयंतपर्वतपरका विवाद-बताया गया विचारानुसार उनकी प्रतिमायें सवस्त्रांकित है, उसकी सत्यताके स्वीकारनेमें कोई पुष्ट प्रमाण होनी चाहिए। यह हेतु युक्तियुक्त और बुद्धिग्राह्य या ऐतिहासिक अनुसन्धान उपाध्यायजीके है । इस लिए यदि तीर्थकर दिगम्बर सिद्धावाक्योंमें नहीं मिलता । उज्जयंतगिरिवाले वृत्तांत. न्तानुसार निर्वस्त्र---नग्न ही रहते होंगे तो उनकी की टीकामें उन्होंने लिखा है कि यह बात संप्र- मूर्तियाँ भी उसी कालसे नग्न ही बनती चली आनी दायगत चली आती है। परंतु संप्रदायगत चली चाहिए और श्वेताम्बर मन्तव्यके अनुसार 'चीवर आनेवाली तो हजारों ही बातें आज अनैतिहा- धारी होत्था' अर्थात् सवस्त्र रहते होंगे, तो मूर्ति सिक और निर्मल सिद्ध होती चली जा रही हैं! भी यथान्याय वस्त्रचिह्नांकित बनती हुई चली सिवाय किस समय यह विवाद हुआ और किन आनी चाहिए। उपपत्तिसे तो यही कथन सिद्ध आचार्योंने इस भेदसूचक पल्लवचिह्नका प्रादु- होता है। "पुविं जिणपरिमाणं नागणतं नेव नवि भीव किया, इसका कोई नामोल्लेख ही नहीं किया अ पल्लवओ” वाले अव्यक्त कथनमें तो कोई भी गया है जिससे कुछ थोड़ा बहुत भी इस कथनको हेतु नहीं प्रतीत होता। विचाराह समझा जाय।
___ इतना होने पर भी उपाध्यायजीके इस कथएक बात और है-'पूर्वकालीन जिनप्रतिमायें नका एक प्रमाण अवश्य उपलब्ध होता है और न नग्न थीं और न वस्त्रचिह्नांकित' इस प्रकार जो ऊपर लिखा भी चुका है कि पद्मासनस्थ प्रतिअव्यक्त रूपके होने में कोई हेतु या मनुष्य- माओंमें कितनी एक ऐसी भी प्राचीन प्रतिमायें स्वभाव नहीं प्रतीत होता । बल्कि हेतु और दृष्टिगोचर होती हैं जिनका पादमूलमें, जैसा युक्तिसे तो, इन दो प्रकारोंमेंसे किसी एक प्रका• कि उपाध्यायजीने लिखा है, पल्लव-चिह्न भी रके होनेकी अत्याव।कता सिद्ध होती है। नहीं है, और स्पष्ट नग्नपना भी नहीं है। अर्वाचीन क्यों कि प्रकृतिके नियम नुसार मनुष्यकी केवल मूर्तियोंमें वह बात नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तियों के
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