Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 109
________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। ३०१ थी। आधीरातको एक दासी रोती हुई उसके प्राण देकर उनके इस सन्देहको दूर कर दूं पास गई और उससे सब समाचार अक्षर उनके मनमें यह दुखानेवाला सन्देह उत्पन्न अक्षर कह सुनाया । वह दासी पानदान लेकर करके यदि मैं जीता ही रहूँ और अपने मनकी रानीके पीछे पीछे सेजमहलके दरवाजेतक गई पवित्रता जनाऊँ तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस थी और सब बातें सुनकर आई थी । हरदौल भले काममें अधिक आगा पीछा करना अच्छा राजाका ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि नहीं । मैं खुशीसे विषका बीड़ा खाऊँगा। इससे राजाके मनमें कोई न कोई काँटा अवश्य खटक बढ़कर शूरवीरकी मृत्यु और क्या हो सकती है ? रहा है। दासीकी बातोंने उसके सन्देहको और क्रोधमें आकर, मारूके मन बढ़ानेवाले शब्द भी पक्का कर दिया। उसने दासीसे कड़ी मनाही सुनकर रणक्षेत्रमें अपनी जानको तुच्छ समझना कर दी कि सावधान ! किसी दूसरेके कानोंमें इतना कठिन नहीं है । आज सच्चा वीर हरदौल इन बातोंकी भनक न पड़े और वह स्वयं मरनेके अपने हृदयके बढ़प्पन पर अपनी सारी वीरता लिए तैयार हो गया। और साहस न्यौछावर करनेको उद्यत है । ___ हरदौल बुन्देलोंकी वीरताका सूरज था। दूसरे दिन हरदौलने खूब तड़के स्नान किया। उसके भौंहोंके तनिक इशारेसे तीन लाख बुन्देले बदन पर अस्त्रशस्त्र साजे और मुसकुराता हुआ मरने और मारनेके लिए इकडे हो सकते थे। राजाके पास गया । राजा भी सोकर तुरंत ही ओरछा उस पर न्यौछावर था । यदि जुझारसिंह उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौलकी खुले मैदान उसका सामना करता, तो अवश्य मूर्तिकी ओर लगी हुई थीं। सामने सङ्गमर्मरकी मुँहकी खाता । क्योंकि हरदौल भी बुन्देला था चौकीपर विष मिला पान सोनेकी तश्तरीमें रक्खा और बन्देला अपने शत्रके साथ किसी प्रकारकी हआ था। राजा कभी पानकी ओर ताकते और मुहँदेखी नहीं करते, मरना मारना उनके जीवनका कभी मूर्तिकी ओर, शायद उनके विचारने इस एक अच्छा दिल बहलाव है। उन्हें सदा इसकी विषकी गाँठ और उस मूर्ति में एक सम्बन्ध पैदा लालसा रहती है कि कोई हमें चुनौती दे, कर दिया था। उससमय जो हरदौल एकाएक कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खूनकी प्यास रहती घरमें पहुँचे, तो राजा चौंक पड़े और सम्हल है और वह प्यास कभी नहीं बुझती । परंतु उस कर पूछा, “ इस समय कहाँ चले ?" समय एक स्त्रीको उसके खूनकी जरूरत थी हरदौलका मुखड़ा प्रफुल्लित था । वह हँसकर और उसका साहस उसके कानोंमें कहता था बोला,-" कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशीमें कि एक निर्दोष और सती अबलाके लिए अपने मैं आज शिकार खेलने जाता है। आपको शरीरका खून देनेमें मुँह न मोड़ो । यदि भैयाको ईश्वरने अजीत बनाया है, मुझे अपने हाथसे यह सन्देह होता कि-"मैं उनके खूनका प्यासा विजयका बीड़ा दीजिए।" हूँ और उन्हें मारकर राज पर आधिकार करना यह कहकर हरदौलने चौकीपरसे पानदान चाहता हूँ" तो कुछ हर्ज न था। राजके लिए उठा लिया और उसे राजाके सामने रखकर कतल और खून, दगा और फरेब सब उचित बीड़ा लेने लिए हाथ बढ़ाया । हरदौलका खिला समझा गया है। परंतु उनके इस सन्देहका मुखड़ा देखकर राजाकी ईर्षाकी आग और र्भा निपटेरा मेरे मरनेके सिवा और किसी तरह नहीं भड़क उठी । दुष्ट ! मेरे घाव पर नमक छिड़हो सकता । इस समय मेरा धर्म है कि, अपना कने आया है? मेरे मान और विश्वासको मिट्टी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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