Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 107
________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। २९९ हाराजसे मेरा अपराध क्षमा करा सके। ये “ क्या इस लिए कि आज मेरी भूलसे ज्योनाबाहुलतायें जिस समय उनके गलेका हार होंगी, रके थालोंमें उलट फेर हो गया ?" ये आँखें जिस समय प्रेमके मदसे लाल होकर राजा-" नहीं! इस लिए कि हरदौलने देखेंगी, तब क्या मेरे सौन्दर्यकी शीतलता उनकी तुम्हारे प्रेममें उलट फेर कर दिया।” क्रोधाग्निको ठंडा न कर देगी ! पर थोड़ी देरमें जैसे आगकी आँचसे लोहा लाल हो जाता रानीको ज्ञान हुआ ! आह ! यह मैं क्या स्वप्न . है, वैसे ही रानीका मुँह लाल हो गया। क्रोधकी देख रही हूँ ! मेरे मनमें ऐसी बातें क्यों आती अग्नि सद्भावोंकी भस्म कर देती है, प्रेम और हैं ? मैं अच्छी हूँ, या बुरी हूँ उनकी प्रतिष्ठा, दया और न्याय, सब जलके राख हो चेरी हूँ ! मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे जाते हैं । एक मिनिटतक रानीको ऐसा मालूम क्षमा माँगनी चाहिए । यह शृंगार और बनाव हुआ, मानों दिल और दिमाग दोनों खौल रहे इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोचकर रानीने हैं। पर उसने आत्मदमनकी अन्तिम चेष्टासे सब गहने उतार दिये । इतरमें बसी हुई हरे रेश- अपनेको सम्हाला, केवल इतना बोली-“ हरदौप्रकी साड़ी अलग कर दी। मोतियोंसे भरी माँग लको मैं अपना लड़का और भाई समझती हूँ।” खोल दी और खूब फूट फूटकर रोई। हाय ! यह राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वरसे बोलमिलापकी रात बिछुड़नकी रातसे भी विशेष दुःख- “ नहीं-हरदौल लड़का नहीं है, लड़का में दाई है । भिखारिनीका भेष बनाकर रानी शीश- हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया । महलकी ओर चली ! पैर आगे बढ़ते थे, पर कुलीना ! मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मन पीछे हटा जाता था । दरवाजेतक आई; मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था, मैं समझता था पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा, चाँद सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं ऐसा जान पड़ा मानों उसके पैर थर्रा रहे हैं। टल सकता । पर आज मुझे मालूम हुआ कि, राजा जुझाराहि बोले-" कौन है ?-कुलीना? यह मेरा लड़कपन था । बड़ोंने सच कहा है भीतर क्यों नहीं आ जाती ?" कि, स्त्रीका प्रेम पानीकी धार है, जिस ओर __ कुलीनाने जी कड़ा करके कहा-"महाराज! ढाल पाता है उधर ही बह जाता है ।--सोना कैसे आऊँ ? मैं अपनी जगह क्रोधको बैठा हुआ ज्यादा गर्म होकर पिघल जाता है ।" पाती हूँ।" कुलीना रोने लगी । क्रोधकी आग पानी बनराजा---" यह क्यों नहीं कहतीं कि मन कर आँखोंसे निकल पड़ी। जब आवाज वशमें दोषी है, इस लिए आँखे नहीं मिलाने देता।" हुई, तो बोली-" मैं आपके इस सन्देहको कैसे कुलीना--" निस्सन्देह मुझसे अपराध हुआ राजा--" हरदौलके खूनसे।" है, पर एक अबला आपसे क्षमाका दान। ___ रानी-“ मेरे खूनसे दाग न मिटेगा ?" पाँगती है।" राजा-“ तुम्हारे खूनसे और पक्का हो राजा--..." इसका प्रायश्चित्त करना होगा।" जायगा !" कुलीना-"क्योंकर ?” रानी;" और कोई उपाय नहीं है ? " राजा-" हरदौलके खूनसे !" राजा-“ नहीं।" कलीना सिरसे पैरतक काँप गई । बोली- रानी-" यह आपका अन्तिम विचार है ?" " दर कम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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