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जैनहितैषी
[भाग १३
राजा--" हाँ; यह मेरा अन्तिम विचार है। से उसका सिर नहीं काटते ? मुझसे वह काम देखो, इस पानदानमें पानका बीड़ा रखा है। करनेको कहते हो। तुम खूब जानते हो मैं नहीं तुम्हारे सतीत्वकी परीक्षा यही है कि तुम हरदौ- कर सकती । यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया लको इसे अपने हाथसे खिला दो। मेरे मनका है, यदि मैं तुम्हारी जानकी जंजाल हो गई हूँ भ्रम उसी समय निकलेगा, जब इस घरसे हर- तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो । मैं बेखटके दौलकी लाश निकलेगी।"
चली जाऊँगी । पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना रानीने घृणाकी दृष्टि से पानके बीड़ेको देखा बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों और वह उलटे पैर लौट आई।
रहूँ ? मेरे लिए अब जीवनमें कोई सुख नहीं है। रानी सोचने लगी, क्या हरदौलके प्राण लूँ ? अब मेरा मरना ही अच्छा है । मैं स्वयं प्राण निर्दोष, सच्चरित्र, वीर हरदौलकी जानसे अपने दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा । सतीत्वकी परीक्षा दूँ ? उस हरदौलके खूनसे विचारोंने फिर पलटा खाया । तुमको यह पाप अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता करना ही होगा । इससे बड़ा पाप शायद है ? यह पाप किसके सिर पड़ेगा ? क्या एक आजतक संसार में न हुआ हो । पर यह निर्दोषका खून रंग न लायेगा । आह ! अभागी पाप तुमको करना होगा । तुम्हारे पतिव्रत पर कुलीना ! तुझे आज अपनी सतीत्वकी परीक्षा सन्देह किया जा रहा है और तुम्हें इस सन्देहको देनेकी आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी मिटाना होगा । यदि तुम्हारी जान जोखिममें कठिन । नहीं, यह पाप मुझसे न होगा । यदि होती, तो कुछ हर्ज न था। अपनी जान देकर राजा मुझे कुलटा समझते है तो समझें, उन्हें हरदौलको बचा लेती । पर इस समय तुम्हारे मुझपर सन्देह है तो हो । मुझसे यह पाप न पातिव्रत पर आँच आ रही है । इस लिए तुम्हें होगा। राजाको ऐसा सन्देह क्यों हुआ? क्या यह पाप करना ही होगा । और पाप करनेके केवल थालोंके बदल जानेसे ? नहीं, अवश्य बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा । यदि कोई और बात है । आज हरदौल उन्हें जंगलमें तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि मिल गया था। राजाने उसकी कमरमें तलवार तुम्हारा मुखड़ा जरा भी मध्यम हुआ, तो देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौलसे कोई इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम सन्देह मिटाअपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है ? नेमें सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है ? बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा । परंतु केवल थालोंके बदल जानेसे । हे ईश्वर ! मैं कैसे होगा ? क्या मैं हरदौलका सिर उतारूँगी ? किससे अपना दुःख कहूँ ? तूही मेरा साक्षी है। यह सोचकर रानीके शरीरमें कँपकँपी आ गई !
जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा। नहीं; मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता : ___ रानीने फिर सोचा, राजा, क्या तुम्हारा हृदय प्यारे हरदौल ! मैं तुम्हें विष नहीं खिला सकती ! ऐसा ओछा और नीच है ? तुम मुझसे हरदौल- मैं जानती हूँ, तुम मेरे लिए आनन्दसे विषका की जान लेनेको कहते हो ? यदि तुमसे उस- बीड़ा खा लोगे । हाँ, मैं जानती हूँ, तुम नाहीं न का अधिकार और भान नहीं देखा जाता तो करोगे। पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता ! क्यों साफ साफ ऐसा नहीं कहते ? क्यों मरदों- एक बार नहीं, हजार बार नहीं हो सकता। की लड़ाई नमि उड़ते ? क्या स्वयं अपने हाथ- हरदौलको इन बातोंकी कुछ भी खबर न
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