Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 101
________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः। तेरहवाँ भाग। अंक ७ जैनहितैषी। आषाढ़, २४४३. जुलाई, १९१७. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ राजा हरदौल। अवसर मिला। सफरकी तैयारियाँ होने लगी। तब राजाने अपने छोटे भाई हरदौलसिंहको बुलाकर कहा-" भैया मैं तो जाता हूँ। अब (ले०-श्रीयुत प्रेमचन्दजी।) यह राजपाट तुम्हारे सुपुर्द है । तुम भी जीसे चन्देलखण्डमें ‘ओरछा ' पुराना राज्य है। उसे प्यार करना । न्याय ही राजाका सबसे बड़ा इसके राजा बुन्देले हैं। इन बुन्देलोंने पहा- सहायक है । न्यायकी गढ़ीमें कोई शत्रु नहीं डोंकी घाटियोंमें अपना जीवन बिताया है । एक घुस सकता, चाहे वह रावणकी सेना या इन्द्रका समय ओरछेके राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े बल लेकर आवे । पर न्याय वही सच्चा है, जिसे साहसी और बुद्धिमान थे। शाहजहाँ उस समय प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल दिल्लीके बादशाह थे। जब खानजहाँ लोदीने न्याय करना न होगा, बल्कि प्रजाको अपने बलवा किया और वह शाही मुल्कको लटता न्यायका विश्वास भी दिलाना होगा । और मैं पाटता ओरछेकी ओर आ निकला, तब राजा तुम्हें क्या समझाऊँ तुम स्वय समझदार हो ।” जुझारसिंहने उससे मोरचा लिया । राजाके इस यह कहकर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और कामसे शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। क्योंकि वे हरदौलसिंहके सिरपर रख दी । हरदौल रोता मनष्पके गणों की परख करनेवाले थे । उन्होंने हुआ उनके पैरासे लिपट गया। तुरन्त ही राजाको दक्खिनके काम सौंपे । उस इसके बाद राजा अपनी रानीसे बिदा होनेके दिन ओरछे में बड़ा आनन्द मनाया गया । शाही लिए रनवास आये । रानी दरवाजे पर खड़ी सफीर, खिलत और सनद लेकर राजाले - रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर गिर पड़ी। आया । जुझारसिंहको बड़े कर उसे छातीसे लगाया और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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