Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 95
________________ अङ्क ५-६ ] करते हैं, उनके विचारोंसे लाभ भी उठाते हैं; परन्तु उन्हें अपने समान अधिकार देनेके पक्षपाती नहीं हैं । उन्हें अभी वहाँके विज्ञ लोग भी पराधीनता की जंजीरसे जकड़े रखना चाहते हैं । सामाजिक अधिकार तो बहुत कुछ दिये जा चुके हैं, परन्तु राजनैतिक अधिकार देनेकी ओर अभी विचार कम पहुँचा है । हाँ, यह अवश्य है कि इस ओरसे न तो वहाँकी स्त्रियाँको बेफिकरी है और न पुरुष ही ऐसे हैं जिन्हें इसकी चिन्ता न हो । उदार दलके कई नेता पहले भी इसके पक्षपाती थे और अब भी हैं । वहाँकी स्त्रियाँ अब इस योग्य बना दी गई हैं अथवा विद्या पाकरके ऐसी बन गई है कि वे स्वयं अपना अधिकारप्राप्तिका आन्दोलन करती रहती हैं । यूरोपके वर्तमान युद्ध के आरम्भ होनेसे पहले वोट प्राप्तिके लिए इंग्लैण्ड की स्त्रियोंने बड़ा आन्दोलन मचाया था । परन्तु अबतक उन्हें सफलता नहीं मिली । * सफलता न प्राप्त होने से वे हतोत्साह नहीं हुई हैं। उन्हें अवसर मी अच्छा प्राप्त हो गया है । वर्तमान युद्ध में स्त्रियों द्वारा जो सहायता युद्धकार्य में रही है, यह इस बातका एक प्रत्यक्ष प्रमाण है कि यूरोपनिवासिनी महिलायें, इस योग्य हो गई हैं कि उनकी पराधीनताकी बेड़ी बिलकुल काट दी जावे । स्त्रियोंकी योग्यता उनका परिश्रम और अध्यवसाय, उनकी कार्यदक्षता, अब इतनी अधिक बढ़ी हुई है कि यूरोपनिवासी पुरुष अब बहुत कुछ नम्र दिखाई पड़ते हैं और जो भाव वे व्यक्त करते हैं, उनसे स्त्रियोंका भविष्यत् बहुत कुछ उज्ज्वल दिखाई पड़ रहा मिल प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं? Jain Education International * नहीं, सफलता मिलगई । इंग्लैंडकी ३० वर्ष से अधिक उम्रकी स्त्रियोंको 'वोट' देनेका अधिकार मिल चुका ! यह लेख इससे बहुत पहलेका लिखा हुआ है ! २८७ है । परन्तु हमारी स्त्रियोंकी दशा ? अभी दिल्ली बहुत दूर है ! हम किसी अगले अंक में भारतीय स्त्रियोंकी पराधीनताका इतिहास अपने पाठक और पाठिकाओंके सामने उपस्थित करनेका उद्योग करेंगे । ( चान्दसे उद्धृत । ) प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं? ( लेखक - श्रीयुत J. S. ) स्वीकार यह तो अब प्रायः निश्चित हो गया है कि जैनधर्ममें प्रारम्भ हीसे मूर्ति-पूजा को किया गया है । बहुतसे विद्वानोंका यह भी खयाल है कि वैदिक और बौद्ध धर्ममें भी जो मूर्ति पूजाको स्वीकार किया गया है वह जैनधर्महीका अनुकरण है । इस पिछले कथनमें कहाँतक सत्यता है इसकी मीमांसा करने का यह स्थल नहीं है, इस लिए चाहे यह कथन कैसा ही हो; परंतु इतना तो सिद्ध है कि भार तके उपर्युक्त दोनों ही जैनेतर महान् धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म की मूर्तिपूजा कुछ प्राचीन अवश्य है । जैनधर्म बहुत समय से श्वेताम्बर और दिगम्बर ऐसे दो विशिष्ट विभागोंमें विभक्त है ! यद्यपि तत्त्वज्ञान और मूल मन्तव्यों में ये दोनों संप्रदाय प्राय: समानता ही धारण करते हैं तो भी क्रियाकाण्ड और तद्विषयक विचारों में कुछ भिन्नता अवश्य दिखाई देती है और इसी कारण, मूर्तिपूजाका स्वीकार दोनों संप्रदायों में एकसा होने पर भी मूर्तियों के आकार में और उनकी पूजन - विधिमें भी कुछ अन्तर है। वर्त्तमान समयमें श्वेताम्बर संप्रदायकी जितनी जिनमूर्तियाँ कही जाती या मानी जाती हैं उन पर यथास्थान वस्त्रका - सम्पादक । आकार बना हुआ होकर गुह्य प्रदेश अदृश्य होता For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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