Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 69
________________ दर्शनसार । तत्तो ण कोवि भणिओ गुरुगणहरपुंगवेहि मिच्छत्तो। पंचमकालवसाणे सिच्छंताणं विणासो हि ॥४७॥ ततो न कोपि भणितो गुरुगणधरपुङ्गवैः मिथ्यात्वः । पञ्चमकालावसाने शिक्षकानां विनाशो हि ॥ ४७ ॥ अर्थ-इसके बाद गणधर गुरुने और किसी मिथ्यात्वका या मतका वर्णन नहीं किया। पंचमकालके अन्तमें सच्चे शिक्षक मुनियोंका नाश हो जायगा। एक्को वि य मूलगुणो वीरंगजणामओ जई होई। सो अप्पसुदो वि परं वीरोव्व जणं पवोहेइ ॥४८॥ एक अपि च मूलगुणः वीराङ्गजनामकः यतिः भविष्यति । स अल्पश्रुतोऽपि परं वीर इव जनं प्रबोधयिष्यति ॥ ४८ ॥ .. अर्थ-केवल एक ही वीरांगज नामका यति या साधु मूलगुणोंका धारी होगा, जो अल्पश्रुत ( शास्त्रोंका थोड़ा ज्ञान रखनेवाला ) होकर भी वीर भगवानके समान लोगोंको उपदेश देगा। ग्रन्थकर्ताका अन्तिम वक्तव्य । पुवायरियकयाई गाहाई संचि ऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९ ॥ रइओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए। सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥ ५० ॥ पूर्वाचार्यकृता गाथाः संचयित्वा एकत्र । श्रीदेवसेनगणिना धारायां संवसता ॥ ४९॥ रचितो दर्शनसारो हारो भव्यानां नवशते नवके । श्रीपार्श्वनाथगेहे सुविशुद्धे मावशुद्धदशम्याम् ॥ ५० ॥ अर्थ-श्री देवसेन गणिने माघ सुदी १० वि० संवत् ९०९ को धारानगरीमें निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवानके मन्दिरमें पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई गाथाओंको एकत्र करके यह दर्शनसार नामका ग्रन्थ बनाया, जो भव्यजीवोंके हृदयमें हारके समान शोभा देगा । रूसउ तूसउ लोओ सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स । किं जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिदेण ॥ ५१ ।। रुप्यतु तुप्यतु लोकः सत्यमाख्यातकस्य साधोः।। किं यूकाभयेन शाटी विवर्जितव्या नरेन्द्रेण ॥५१॥ . .. अर्थ-सत्य कहनेवाले साधुसे चाहे कोई रुष्ट हो और चाहे सन्तुष्ट हो । उसे इसकी परवा नहीं । क्या राजाको जूओंके भयसे वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ? कभी नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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