Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 67
________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । णंदियडे वरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ॥ ३८ ॥ सप्तशते त्रिपञ्चाशति विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । नन्दितटे वरग्रामे काष्ठासंघो ज्ञातव्यः ॥ ३८ ॥ णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविण्णाणी । कहो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ३९॥ नन्दितटे वरनामे कुमारसेनश्च शास्त्रविज्ञानी । ___ काष्ठः दर्शनभ्रष्टो जातः सल्लेखनाकाले ॥ ३९ ॥ . अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष बाद नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंघ हुआ । इस नन्दीतट ग्राममें कुमारसेन नामका शास्त्रज्ञ सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर काष्ठासंघी हुआ। माथुरसंघकी उत्पत्ति । तत्तो दुसएतीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो । णामेण रामसेणो णिपिच्छं वणियं तेण ॥४०॥ ततो द्विशतेऽतीते मथुरायां माथुराणां गुरुनाथः । नाम्ना रामसेनः निष्पिच्छि वर्णितं तेन ॥ ४० ॥ अर्थ-इसके २०० वर्ष बाद अर्थात् विक्रमकी मृत्युके ९५३ वर्ष बाद मथुरा नगरीमें माथुर संघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छिक रहनेका वर्णन किया। अर्थात् यह उपदेश दिया कि मुनियोंको न मोरके पंखोंकी पिच्छी रखने की आवश्यकता है और न बालोंकी । उसने पिच्छीका सर्वथा ही निषेध कर दिया। सम्मत्तपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदविवेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ॥४१॥. सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वं कथितं यत् जिनेन्द्रबिम्धेषु । आत्मपरनिष्ठितेषु च ममत्वबुद्धया परिवसनम् ॥ ४१ एसो मम होउ गुरू अवरो णस्थित्ति चित्तपरियरणं । सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ॥४२॥ एष मम भवतु गुरुः अपरो नास्तीति चित्तपरिचलनम् । स्वकगुरुकुलाभिमान इतरेषु अपि भङ्गकरणं च ॥ ४२ ॥ अर्थ---उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुए जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धिद्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा-वन्दना करने; मेरा गुरु यह है, दूसरा नहीं है, इस प्रकारके भाव रखने; १'कुमारसेणो हि णाम पन्वइओ' यह पाठ ख-ग पुस्तकोंमें मिलता है । 'पपइमो' की छाया 'प्रवर्तकः ' होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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