Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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२५८ जैनहितैषी
[ भाग १३ आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहियपुणदिक्खओ जादो ॥ ३३ ॥
आसीत्कुमारसेनो नन्दितटे विनयसेनदीक्षितः ।
संन्यासभञ्जनेन च अगृहीतपुनीक्षो जातः ॥ ३३ ॥ अर्थ-नन्दीतट नगरमें विनयसेन मुनिके द्वारा दीक्षित हुआ कुमारसेन नामका मुनि था। उसने सन्याससे भ्रष्ट होकर फिरसे दीक्षा नहीं ली और
परिवजिऊण पिच्छं चमरं चित्तूण मोहकलिएण। उम्मग्गं संकलियं बागडविसएसु सव्वेसु ॥ ३४ ॥ परिवर्ण्य पिच्छं चमरं गृहीत्वा मोहकलितेन ।
उन्मार्गः संकलितः बागड़विषयेषु सर्वेषु ॥ ३४ ॥ अर्थ-मयूरपिच्छिको त्यागकर तथा चँवर ( गौके बालोंकी पिच्छी ) ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया।
इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसग्गहणं छटुं च गुणव्वदं नाम ॥ ३५ ॥ स्त्रीणां पुनर्दीक्षा क्षुल्लकलोकस्य वीरचयत्वम् ।
ककेशकेशग्रहणं षष्ठं च गणव्रतं नाम ॥ ३५ ॥ आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि । विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएसु ॥३६॥
आगमशास्त्रपुराणं प्रायश्चित्तं च अन्यथा किमपि । विरच्य मिथ्यात्वं प्रवर्तितं मूढलोकेषु ॥ ३६ ॥ अर्थ-उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकोंको वीरचर्याका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका, और ( रात्रिभोजनत्याग नामक ) छ्ट्रे गुणवतका विधान किया। इसके सिवाय उसने अपने आगम, शास्त्र, पुराण और प्रायश्चित ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकारके रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया।
सो समणसंघवजो कुमारसेणो हु समयमिच्छतो। चत्तोवसमो रुद्दो कहं संघ परूवेदि ॥ ३७ ॥ स श्रमणसंघवर्यः कुमारसेनः खलु समयमिथ्यात्वी ।
त्यक्तोपशमो रुद्रः काष्ठासंघ प्ररूपयति ॥ २७ ॥ अर्थ-इस तरह उस मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टि, उपशमको छोड़ देनेवाले और रोग परिणामवाले कुमारसेनने काष्ठासंघका प्ररूपण किया ।
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