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जनहितैषी
[ भाग १३
चाहिए। परन्तु नं० ११ की गाथामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय विक्रम संवत् १३६ बतलाया गया है । अर्थात् दोनोंमें कोई ४५० वर्षका अन्तर है। यदि यह कहा जाय कि ये भद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली नहीं, किन्तु कोई दूसरे ही थे, तो भी बात नहीं बनती। क्योंकि भद्रबाहुचरित्र आदि ग्रन्थोंमें लिखा है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली ही दक्षिणकी ओर गये थे और राजा चन्द्रगुप्त उन्हींके शिष्य थे। श्रवणबेलगुलके लेखों में भी इस बातका उल्लेख है । दुर्भिक्ष भी इन्हींके सभ. यमें पड़ा था जिसके कारण मुनियोंके आचरणमें शिथिलता आई थी । अतएव भद्रबाहुके साथ विक्रम संवत् १३६ की संगति नहीं बैठती । भद्रबाहुचरित्रके कर्त्ता रत्ननन्दिने भद्रबाहुके और संवत् १३६ के बीचके अन्तरालको भर देने के लिए श्वेताम्बरसम्प्रदायके 'अर्ध फालक' और श्वेताम्बर इन दो भेदोंकी कल्पना की है, अर्थात् भद्रबाहुके समयमें तो 'अर्धफालक' या आधावस्त्र पहननेवाला सम्प्रदाय हुआ और फिर वहीं सम्प्रदाय कुछ समयके बाद वल्लभीपुरके ग़जा प्रजापालकी रानीके कहने से पूरा वस्त्र पहननेवाला श्वेताम्बर सम्प्रदाय बन गया। परन्तु इस कल्पनाम कोई तथ्य नहीं है। साफ मालूम होता है कि यह एक भद्दी गढ़त है।
१२ श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें शान्त्याचार्यके शिष्य जिनचन्द्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो कि दर्शनसारके कथानुसार इस सम्प्रदायका प्रवर्तक था । इसके सिवाय यदि गोम्मटसारकी 'इंदो वि य संसइयो' आदि गाथाका अर्थ वही माना जाय, जो टीकाकारोंने किया है, तो श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक — इन्द्र' नामके आचार्यको समझना चाहिए । भद्रबाहुचरित्रके कर्ता इन दोनोंको न बतलाकर रामल्य स्थूलभद्रादिको इसका प्रवर्तक बतलाते हैं। उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में दिगम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक ' सहस्रमल्ल ' अथवा किसीके मतसे 'शिवभूति' नामक साधु बतलाया गया है । पर दिगम्बर ग्रन्थोंमें न सहस्रमल्लका पता लगता है और न शिवभूतिका । क्या इसपरसे हम यह अनुमान नहीं कर सकते कि इन दोनों सम्प्रदायोंकी उत्पत्तिका मूल किसीको भी मालूम न था । सबने पीछेसे 'कुछ लिखना चाहिए इसी लिए कुछ न कुछ लिख दिया है।
१३ दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो भेद कब हुए, इसका इतिहास बहुत ही गहरे अँधेरेमें छुपा हुआ है-इसका पता लगाना बहुत ही आवश्यक है। अभीतक इस विषय पर बहुत ही कम प्रकाश पड़ा है । ज्यों ही इसके भीतर प्रवेश किया जाता है, त्यों ही तरह तरहकी शंकायें आकर मार्ग रोक लेती हैं। हमारे एक मित्र कहते हैं कि जहाँसे दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावलीमें भेद पड़ता है, वास्तवमें वहींसे इन दोनों संघोंका जुदा जुदा होना मानना चाहिए। भगवानके निर्वाणके बाद गोतमस्वामी, सुधर्मास्वामी और जम्बूस्वामी बस इन्हीं तीन केवलज्ञानियोंतक दोनों सम्प्रदायोंकी 'एकता है । इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए हैं, वे दिगम्बर सम्प्रदायमें दूसरे हैं और श्वेताम्बरमें दूसरे । आगे भद्रबाहुको अवश्य ही दोनों मानते हैं । अर्थात् जम्बूस्वामीके बाद ही दानों जुदा जुदा हो गये हैं । यदि ऐसा न होता तो भद्रबाहुके शिष्यतक, अथवा आगे चलकर वि० संवत् १३६ तक दोनोंकी गुरुपरम्परा एकसी होती । पर एक सी नहीं है । अतएव ये दोनों ही समय सशंकित हैं । एक बात और है । श्वेताम्बरसम्प्रदायके आगम या सूत्रग्रन्थ वीरनिर्वाण संवत् ९८० (विक्रम संवत् ५१० ) के लगभग वल्लभीपुरमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें संगृहीत होकर लिखे गये हैं और जितने दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थ उपलब्ध हैं और
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