Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ अङ्क ५-६ ] दर्शनसार - विवेचना | २६७ जो निश्चयपूर्वक साम्प्रदायिक कहे जा सकते हैं वे प्राय: इस समय से बहुत पहले के नहीं हैं | अ एवं यदि यह मान लिया जाय कि विक्रम संवत् ४१० के सौ पचास वर्ष पहले ही ये दोनों भेद सुनिश्चित और सुनियमित हुए होंगे तो हमारी समझमें असंगत न होगा। इसके पहले भी भेद रहा होगा; परन्तु वह स्पष्ट और सुशृंखलित न हुआ होगा । श्वेताम्बर जिन बातोंको मानते होंगे उनके लिए प्रमाण माँगे जाते होंगे और तब उन्हें आगमोंको साधुओंकी अस्पष्ट यादगारी परसे संग्रह करके लिपिबद्ध करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई होगी। इधर उक्त संग्रह में सुश्रृंखलता प्रौढता आदि की कमी, पूर्वापरविरोध और अपने विचारोंसे विरुद्ध कथन पाकर दिगम्बरोंने उनको मानने से इनकार कर दिया होगा और अपने सिद्धान्तों को स्वतंत्ररूपसे लिपिबद्ध करना निश्चित किया होगा । आशा है कि विद्वानोंका ध्यान इस ओर जायगा ओर वे निष्पक्ष दृष्टिसे इस श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्बन्धी प्रश्नका निर्णय करेंगे। १४ सोलहवीं और सत्रहवीं गाथामें जिस विपरीत मतकी उत्पत्ति बतलाई है, उसकी पद्मपुराणोक्त* कथासे मालूम होता है कि वह ब्राह्मणोंका वैदिक मत है, जो यज्ञमें पशुहिंसा करने में धर्मं समझता है । गोम्मटसार में 'एयंत बुद्धदरसी' आदि गाथा में विपरीत मतके उदाहरणमें जो 'ब्रह्म' शब्द दिया है, उसका भी अर्थ 'ब्राह्मणमत' है । पद्मपुराण के अनुसार मुनिसुव्रत तीर्थकर के और पर्वत आदि समयको लाखों वर्ष हो गये । अत एव यह कथा यदि सच मानी जाय तो वैदिक धर्म जितना पुराना माना जाता है उससे मी बहुत पुराना सिद्ध हो जायगा । हमारी समझमें तो स्वयं वेदानुयायी ही अपने धर्मको इतना पुराना नही मानते हैं । जैन विद्वानों के लिए यह सोचने विचारने की बात है । १५ बीसवीं से तेईसवींतक चार गाथाओं में अज्ञान मतका वर्णन है । इसके कर्त्ताका नाम मस्करिपूरन ' नामक साधु बतलाया गया है; परन्तु बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मस्करि गोशाल और पूरन कश्यप ये दो भिन्न भिन्न व्यक्ति थे और दो जुदा जुदा मतों के प्रवर्तक थे । महापरिनिर्वाणसूत्र, महावग्ग, और दिव्यावदान आदि कई बौद्धग्रन्थोंमें बुद्ध देव के समसामयिक जिन छह तीर्थंकरोंका या मतप्रवर्तकों का वर्णन मिलता है, ये दोनों भी उन्हीं के अन्तर्गत हैं । ८ * क्षीरकदम्ब उपाध्यायके पास राजपुत्र वसु, नारद और उनका पुत्र पर्वत ये तीनों पढ़ते थे । क्षीरकदम्ब मुनि होकर तपस्या करने लगे । वसु राजा हो गया और राज कार्य करने लगा । पर्वत और नारदमें एक दिन ' अजैर्यष्टव्यं ' इस वाक्य पर विवाद हुआ । नारद इसका अर्थ करता था कि पुराने यवोंसे यजन करना चाहिए और पर्वत कहता था कि बकरोंसे । अर्थात् यज्ञमें पशुओंका आलभन करना चाहिए। दोनों अपने अपने अर्थको क्षीरकदम्बका बतलाया हुआ कहते थे । राजा वसु प्रसिद्ध सत्यवादी था । दोनोंने यह शर्त लगाई कि राजा वसु जिसके अर्थको सत्य अर्थात् क्षीरकदम्बके कथनानुसार बतलावे उसीकी जीत समझी - जाय और जो हारे उसकी जिह्वा छेदी जाय । दूसरे दिन इसका निर्णय होनेवाला था कि पहली रातको पर्व तकी माताने अपने पुत्रका पक्ष असत्य समझकर उसकी जिह्वा काटी जाने के डर से राजा वसु पर अनुचित दबाव डाला और उसे झूठ बोलने पर राजी कर लिया । दूसरे दिन सभा में राजःवमुने पर्वतके हो पक्षको सत्य बतलाया और इसका फल यह हुआ कि उसका सिंहासन लोगोंके देखते देखते जमीन के नीचे धँस गया । इसके बाद पर्वत अपने पक्षका समर्थन करता हुआ और यज्ञमें हिंसा करनेका उपदेश देता हुआ फिरने लगा । • यज्ञार्थ पशवः सृष्टः स्वयमेव स्वयंभुवा' आदि श्लोकका वह प्रचारक हुआ । आगे उसने राजा पुस्तके द्वारा एक बड़ा भारी यज्ञ कराया जिसका विध्वंस रावणने जाकर किया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140