Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 80
________________ २७२ जैनहितेषी [भाग १३ के लगभग प्रारंभ होगा । परन्तु वीरसेन माथुरसंघके पहले आचार्य नहीं थे। उसके पहले और भी कुछ आचार्य हुए होंगे। यदि रामसेन इनसे दो तीन पीढ़ी ही पहले हुए हों तो उनका समय विक्रमकी नवीं शताब्दिका उत्तरार्ध ठहरेगा । गरज यह कि काष्ठासंघ और माथुरसंघ इन दोनों ही संघोंकी उत्पत्तिके समयमें भूल है । इन सब संघोंकी उत्पतिके समयकी संगति बिठानेका हमने बहुत ही प्रयत्न किया है, परिश्रम भी इस विषयमें खूब किया है; परन्तु सफलता नहीं हुई। १८ इन चार संघोंमेंसे इस समय केवल काष्ठासंघका ही नाम मात्रको आस्तित्व रह गया है--क्योंकि इस समय भी एक दो भट्टारक ऐसे हैं जो चमरकी पिच्छी रखते हैं और अपनेको काष्ठासंघी प्रकट करते हैं, शेष तीन संघोंक। सर्वथा लोप समझना चाहिए । माथुरसंघको इस ग्रन्थमें जुदा बतलाया है; परन्तु कई जगह इसे काष्ठासंघकी ही एक शाखा माना है। इस संघकी चार शाखाओंमेंसे-जो नगरों या प्रान्तोंके नामसे हैं-यह भी एक है । यथा:--- काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति वृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥१ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः । लाड़बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥२ अलग बतलानेका कारण यह मालूम होता है कि माथुरसंघमें साधुके लिए पिच्छि रखनेका विधान नहीं है और काष्ठासंघमें गोपुच्छकी पिच्छि रखते हैं । इसी कारण काष्ठासंघको · गोपुच्छक' और माथुरसंघको 'निःपिच्छिक ' भी कहते हैं । इन दोनोंमें और भी दो एक बातोंमें भेद होगा । काष्ठासंघका कोई भी यत्याचार या श्रावकाचार उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसमें मूलसंघसे क्या अन्तर है, इसका निर्णय नहीं हो सकता; परन्तु माथुरसंघका अमितगति श्रावकाचार मिलता है । उससे तो मूलसंघके श्रावकाचारोंसे कोई ऐसा मतभेद नहीं है जिससे वह जैनाभास कहा जाय । जान पड़ता है केवल नि:पिच्छिक होनेसे ही वह जनाभास समझा गया है। काष्ठासंघके विशेष सिद्धान्त ३५ वीं गाथामें बतलाये गये हैं; परन्तु उनमेंसे केवल दो ही स्पष्ट होते हैं-एक तो कड़े बालोंकी या गायकी पूछके बालोंकी पिच्छी रखना और दूसरा क्षुल्लक लोगोंको वीरचर्या अर्थात् स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना । पं० आशाधरने क्षुल्लकोंके लिए इसका निषेध किया है । शेष दो बातें अस्पष्ट हैं, उनका अभिप्राय समझमें नहीं आता। एक तो ' इत्थीणं पुणदिक्खा' अर्थात् स्त्रियोंको पुनः दीक्षा देना और दूसरी यह कि ' हा गुणवत' मानना । गुणवत तो तीन ही माने गये हैं, यदि यह कहा जाता कि चौथा गुणव्रत उसने और माना, तो ठीक भी होता, पर इसमें छठा गुणवत माननेको कहा है। क प्रतिकी टिप्पणीमें लिखा है कि रात्रिभोजनत्याग नामक छट्रे व्रतका विधान किया, पर यह भी अस्पष्ट है । इसके सिवाय यह भी लिखा है कि कुमारसेनने आगम, शास्त्र, पुराण प्रायश्चित्तादि ग्रन्थ जुदे बनाये और अन्यथा बनाये । द्राविड़ संघको 'द्रमिल संघ' भी कहते हैं । पुन्नाट संघ भी शायद इसीका नामान्तर है। हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन इसी पुन्नाट संघमें हुए हैं । नाट शब्दका अर्थ कर्णाट देश है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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