Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ २६० जैनहितैषी [ भाग १३ अपने गुरुकुल ( संघ ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मानभंग करनेरूप सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वका उपदेश दिया। जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ , यदि पद्मनन्दिनाथः सीमन्धरस्वामिदिव्यज्ञानेन । न विवोधति तर्हि श्रमणाः कथं सुमार्ग प्रजानन्ति ॥ ४३ ॥ अर्थ-विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थकर सीमन्धर स्वामीक समवसरणमें जाकर श्रीपद्मनन्दिनाथ या कुन्दकुन्द स्वामीने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? । भूयबलिपुप्फयंता दक्खिणदेसे तहोत्तरे धम्म । जं भासंति मुणिंदा तं तचं णिवियप्पेण ॥ ४४ ॥ भूतबलिपुष्पदन्तौ दक्षिणदेशे तथोत्तरे धर्मम् । यं भाषेते मुनीन्द्रौ तत्तत्त्वं निर्विकल्पेन ॥ ४४ ॥ अर्थ---भूतबलि और पुष्पदन्त इन दो मुनियोंने दक्षिण देशमें और उत्तरमें जो धर्म बतलाया, धही बिना किसी विकल्पके तत्त्व है, अर्थात् धर्मका सच्चा स्वरूप है। भिल्लकसंघकी उत्पत्ति । दक्खिणदेसे विझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो । अद्वारसएतीदे भिल्लयसंघं परूवेदि ॥४५॥ दक्षिणदेशे विन्ध्ये पुष्कर वीरचन्द्रमुनिनाथः । अष्टादशशतेऽतीते भिल्लकसंघ प्ररूपयति ॥ ४५ ॥ सो णियगच्छं किच्चा पडिकमणं तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचारविवाई जिणमग्गं सुट्ठ णिहणेदि ॥ ४६ ॥ स निजगच्छं कृत्वा प्रतिक्रमणं तथा च भिन्नक्रियाः । वर्णाचारविवादी जिनमार्ग सुष्ठ निहनिष्यति ॥ ४६॥ अर्थ-दक्षिणदेशमें विन्ध्यपर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द्र नामका मुनिपति विक्रमराजाकी मृत्यु १८०० वर्ष बीतने बाद मिल्लक संघको चलायगा । वह अपना एक जुदा गध बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमणविधि बनायगा, भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा, और वर्णाचा. रका विवाद खड़ा करेगा । इस तरह वह सच्चे जैनधर्मका नाश करेगा। १ श्रीलगुलमें विध्यगिरि और चन्द्रागिरि नामके दो पर्वत हैं । विन्ध्यसे प्रन्यकर्ताका भभिप्राय नहींके बिन्ध्या । दक्षिणमें और कोई विध्यपर्षत नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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