Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 54
________________ जैनहितैषी - २४६ भी तो नहीं दिखाई देता । विश्वास करके कोई एक रुपया भी उधार नहीं देता। भिखारीकी तरह दिनभर मारा मारा फिरता हूँ, पर कोई नहीं पूछता । बुखार से जानकी बेहोश हो रही है, दवा न मिलनेके कारण उसकी अवस्था और भी बिग ढ़ती जाती है । इस कड़ाके की सर्दी में उसको एक फटा और मैला सूती चादरा उढ़ा रक्खा है । बहाशीमें भी उसके दाँतसे दाँत लगे हैं । पति होकर अपनी सती स्त्रीकी इतनी व्यथा कैसे देखें ! छाती फटी जाती है । यह असह्य है । दारुण कोटकी जेब में हाथ डालकर देखा, केवल चार पांच आने पैसे और एक दरख्वास्तके उत्तर में आई हुई चिट्ठी है । चिट्ठा निकाल कर एक बार पढ़ी | कितने दुःख और निराशा के बाद अम्बालके एक दफ्तर में मेरी दरख्वास्त मंजूर हुई है। सबने लखा है कि तुम्हें दो हफ्ते के भीतर भीतर अम्बाले पहुँचकर काम सँभालना होगा । इस चिट्ठीसे मेरी अपेक्षा जानकीको कई गुणा अधिक आनन्द होता, पर हाय वह आज इस संसारसे बिदा होने के किनारे पर है । इतने • दिन से जो चाह रहा था वह मिला, पर जो वह मुझे सदा सर्वदा के लिए छोड़कर चली गई तो मैं किसका मुँह देखकर दूसरे की नौकरी करूँगा ? मैं धीरे धीरे उसके सिरहाने जाकर खड़ा हुआ। उसकी भीतर घुसी हुईं दोनों आँखें मुँदी हुई हैं। शरीर थरथर काँप रहा है। चिरागका मैला प्रकाश उसके मुख पर पड़कर उसे कितना भयानक कर रहा है । उसके सिरपर हाथ लगाने से हाथ मानों जल गया-मनमें हो आया कि इसी ज्वालामें उसका हृदय जल रहा है । दुःख और उसे मेरा कलेजा धड़कने लगा । क्या करूँ क्या करूँ ! इसका जीवन प्रतिपल क्षीण हो रहा है - किस प्रकार इसकी रक्षा करूँ ? Jain Education International भाग १३ मैं उसी जगह बैठकर कपाल पर हाथ रखे हुए सोचने लगा । यह सोच कितना भयानक था सो भगवान् ही जानते हैं । जब किसी ओर किनारा न दीखा और हृदय बाणविद्ध कुरंगकी छटपटाकर जड़ बनने लगा, तब धीरे धीरे किसीने कान में आकर कहा - " तू चोरी कर ! " तरह चोरी ? हाँ चोरी ! सिवाय इसके अब कोई उपाय नहीं है । धनके लोभमें आकर संसारमें न मालूम कितने लोग कितने बड़े बड़े पाप, कितनी नरहत्या करते हैं; पर मैं तो एक सती सदाचारिणीको जान बचाने के लिए केवल एक दिन चोरी करता हूँ, इसमें दोष ही क्या है ? मन-ही-मन इसकी आलोचना करने लगा | जितना ही सोचने लगा उतना ही मनमें आने लगा कि इससे अधिक सरल उपाय और कोई नहीं है। न किसीको खबर होगी, न कोई देखेगा, न सुनेगा । चोरी करके मैं जानकी के प्राण बचा सकूँगा- मैं यहीं करूँगा | सोच विचार में आधी रात बीत गई। जाड़े में लिहाफ लपेटे सब लोग आनन्दसे सो रहे हैं । महानगरी दिल्ली के सब रास्ते सूने पड़े हैं। किबाड़ खोल कर देखा, चारों ओर शान्ति है। म्यूनिसिपैलिटीकी धुंधली लालटेनें कुहरेको भलीभाँति नहीं हटा सकतीं। फिर भी मानों स्थान स्थानपर वे जागकर सब कुछ देख रही हैं । मैं पागलों की तरह घर से निकल पड़ा ।क्या इसी प्रकार निराश होकर लोग चोर बना करते हैं ? [ २ ] उस अँधेरी गली में दूसरे के मकान की दीवारपर खड़े हुए मेरा कलेजा धड़कने लगा । यदि कहीं में पकड़ा गया तो ? गरीब होने पर भी लोग मुझे इज्जतदार मानते हैं । यदि मैं चोरी करता हुआ पकड़ा गया तो मेरी क्या दशा होगी ? दूर गली के किनारे पर पहरेवाला जोरसे पुकार उठा - ' जागते रहो'। उसी दीवार पर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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