Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 57
________________ अङ्क ५-६] चोर। २४९ नहीं है।" की पुकार सुनी थी । उदासी और चिन्तासे वह चोर भी जागने पर हाथ आये हैं ? " जड़ बनकर घरके बीचमें खड़ी थी। “भाई भाभी, तेरे सिरकी कसम मैंने चोरको ___ बच्चोंकी तरह उसके पैरों पर गिरकर मैंने इधर आते देखा है। ये क्या भाईजी सो रहे कहा-“मा, मेरी रक्षा करो।” ___ एक पल भर में उस स्त्रीने बिजलीकी बत्ती “जियादा शोर मत करो, उनकी नींद खबुझा दी। फिर झटपट मेरा हाथ पकड़कर मुझे राब होगी।" दूसरे घर में ले गई। ___“आओ बाबू, चोर कहीं दूसरी ही तरफ पीछेसे जो आदमी आ रहे थे वे कमरेके दर- आँख बचा कर छिप रहा है।” वाजे पर ही खडे होकर शोर गल करने लगे। सब जल्दी जल्दी घरसे बाहर चले गये । मैं अन्धेरा देखकर भीतर जानेकी उनकी हिम्मत भी एक शान्तिका श्वास त्यागकर खाटसे नीचे न पड़ी । उस स्त्रीने धीरे धीरे मेरे कानमें कहा- उतरकर बैठ गया। "जल्दीसे मेरे साथ बिलोने पर सो जाओ। उस देवीके पैरों पर अपना सिर रखकर मैंने मैंने आश्चर्यसे कहा-" आपके बिछौनेमें " कहा-"मा, आज तुमने अपने प्राणोंकी बाजी उसने कहा-" हाँ, देर मत करो । तुमने Hi लगाकर मेरी रक्षा की । अब बताओ, मैं किमुझे माता कहा है । इसके सिवाय तुम्हारी रक्षा - घरसे जाऊँ ?', देवीने कहा--" थोड़ी देर ठहरो, सबको मैंने कहा-“ यदि मैं पकड़ा गया तो आपका सो जाने दो।" क्या होगा? “ पर जो आपके स्वामी आ जायँ तो ?" ___--" वे आते ही घर खोजेंगे, अब इसके के नीची दृष्टि किये हुए करुण स्वरमें उसने सिवाय कोई उपाय नहीं है । जो तुम बचना कहा--" वे रातमें घर नहीं आते !" चाहो और अपनी स्त्रीको बचाना चाहो तो आश्चर्य है ! ऐसी दयामयी देवीके भाग्यमें जल्दीसे सो जाओ।" भी इतना दुःख है। उस समय वह विचारमें __ इस पर मैं कुछ भी न कह सका। छोटा लीन थी। बहुत धीरेसे अनजानमें उसके महसे चालक जैसे अपनी माताके पास सो जाता है, निकल गया-" स्त्रीके लिए स्वामी चोरतक से ही मैं उस दयामयी देवीके साथ सो गया । बनता है और मेरा स्वामी--मेरा स्वामी--" दो एक मिनिटमें ही कई आदमी लालटेन लिये आ पहुँचे । एकने व्यग्र स्वरमें कहा"भाभी, भाभी, देखो तो तुम्हारे घरमें चोर तो थोड़ी देरमें सब सो गये। मैंने उसके चरणोंनहीं आया ?' ' पर फिर सिर रखकर कहा-" मा, मैं तुम्हारे - रमणीने संयत भाषामें कहा-"क्या, मेरे इस उपकारको इस जन्ममें कमी न भूलूंगा।" घरमें चोर ? कहाँ है ? यहाँ क्यों बेफायदे नींदके वह मुझे सदर दरवाजेतक छोड़ने आई। रास्तेमें समय हल्ला मचा रहे हो !” " चलते हुए मैं सोचने लगा कि विश्वमें जिन्हें देवता --" नहीं, तुम्हारी कसम मैंने उसे इधर कहता ह र कहते हैं वे इनसे बढ़कर और कैसे होंगे? कोमलआते देखा है। फिर किधर गया ?" " तामें जिसका हृदय गुलाबकी कलियोंसे भी अधिक -" घर पड़ा है, देख लो। आया था तो कोमल दयामय है, पवित्रतामें जो यज्ञकी धूमके या कहाँ ?" समान है, कर्तव्यमें जो वज्रकी तरह कठोर है वही विश्वजननी है।* " " मैं यही तो सोच रहा हूँ, गया किधर ?, वही विश्व " सपनेमें चोर देखा होगा । कहीं सपनेके * बंगला 'भारती' से । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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