Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 61
________________ ३५३ अङ्क ५-६] दर्शनसार । सिरिभद्दबाहुगणिणो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो ॥ १२॥ श्रीभद्रबाहुगणिनः शिष्यो नाम्ना शान्ति आचार्यः । तस्य च शिष्यो दुष्टो जिनचन्द्रो मन्दचारित्रः ॥ १२ ॥ अर्थ--श्रीभद्रबाहुगणिके शिष्य शान्ति नामके आचार्य थे। उनका 'जिनचन्द्र' नामका एक शिथिलाचारी और दुष्ट शिष्य था। तेण कियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुणो अदक्खाणं तहा रोओ ॥१३॥ तेन कृतं मतमेतत् स्त्रीणां अस्ति तद्भवे मोक्षः। केवलज्ञानिनां पुनः अद्दक्खाणं (?) तथा रोगः ॥ १३ ॥ अर्थ---उसने यह मत चलाया कि स्त्रियोंको उसी भवमें स्त्रीपर्यायहीसे मोक्ष प्राप्त हो सकता है और केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है । अंबरसहिओ वि जई सिज्झइ वीरस्स गब्भचारतं। पर लिंगे वि य मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ ॥ १४ ॥ अम्बरसहितः अपि यतिः सिद्धयति वीरम्य गर्भचारत्वम् । परलिङ्गेपि च मुक्तिः प्राशुकभोज्यं च सर्वत्र ॥ १४ ॥ अर्थ--वस्त्र धारण करनेवाला भी मुनि मोक्ष प्राप्त करता है, महावीर भगवान्के गर्भका संचार हुआ था, अर्थात् वे पहले ब्राह्मणीके गर्भमें आये, पीछे क्षत्रियाणीके गर्भ में चले गये, जैन. मुद्राके अतिरिक्त अन्य मुद्राओं या वेषोंसे भी मुक्ति हो सकती है और प्राशुक भोजन सर्वत्र हर किसीके यहाँ कर लेना चाहिए । अण्णं च एवमाइ आगमदुहाई मित्थसत्थाई। विरइत्ता अप्पाणं परिठवियं पढमए णरए ॥१५॥ अन्यं च एवमादिः आगमदुष्टानि मिथ्याशास्त्राणि । विरच्य आत्मानं परिस्थापितं प्रथमे नरके ॥ १५ ॥ अर्थ-इसी प्रकार और भी आगमविरुद्ध बातोंसे दूषित मिथ्या शास्त्र रचकर वह पहले नरकको गया। विपरीतमतकी उत्पत्ति । सुब्वयतित्थे उज्झो खीरकदंबुत्ति सुद्धसम्मत्तो । सीसो तस्स य दुठो पुत्तो वि य पब्वओ वक्को ॥ १६ ॥ . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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