Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ दर्शनसार। ३५१ ___ अर्थ-उसने एक विचित्र दर्शन या मत ऐसे ढंगसे बनाया कि वह आगे चलकर उससे भिन्न भिन्न मतप्रवर्तकोंके समयोंमें हानिवृद्धिको प्राप्त होता रहा । अर्थात् उसीके सिद्धान्त थोड़े बहुत परिवर्तित होकर आगेके अनेक मतोंके रूपमें प्रकट होते रहे । एयंतं संसइयं विवरीयं विणयजं महामोहं । अण्णाणं मिच्छत्तं णिद्दिटुं सव्वदरसीहिं ॥५॥ एकान्तं सांशयिकं विपरीतं विनयज महामोहम् । अज्ञानं मिथ्यात्वं निर्दिष्टं सर्वदर्शिभिः ॥५॥ अर्थ-सर्वदर्शी ज्ञानियोंने मिथ्यात्वके पाँच भेद बतलाये हैं-एकान्त, संशय, विपरीत, विनय और अज्ञान। सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो। - पिहियासवस्स सिस्सो महासुंदो बुड्डकित्तिमुणी ॥ ६ ॥ श्रीपार्श्वनाथतीर्थे सरयूतीरे पलाशनगरस्थः । पिहितास्रवस्य शिप्यो महाश्रुतो बुद्धकीर्तमुनिः ॥ ६ ॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ भगवान के तीर्थमें सरयू नदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहितास साधुका शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुत या बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था। तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवज्जाओ परिभट्टो। रत्तंबरं धरित्ता पवट्टियं तेण एयंतं ॥७॥ तिमिपूर्णाशनैः अधिगतप्रवज्यातः परिभ्रष्टः । रक्ताम्बरं धृत्वा प्रवर्तितं तेन एकान्तम् ॥ ७ ॥ अर्थ-मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मतकी प्रवृत्ति की। मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दुद्ध-सकरए। तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥८॥ मांसस्य नास्ति जीवो यथा फले दधिदुग्धशर्करायां च । तस्मात्तं वाञ्छन् तं भक्षन् न पापिष्ठः ॥८॥ १क पुस्तकमें 'महालुद्धो' और गमें ' महालुदो ' पाठ हैं, जिनका अर्थ महालुब्ध होता है। २ क पुस्तकमें ' अगणिय पावज जाउ परिभो' है जिसका अर्थ होता है-अगणित पापका उपामन करके भ्रष्ट हो गया । ख पुस्तकमें 'अगहिय पवजाओ परिकमहो' पाठ है, परन्तु उसमें अगहिय ( अPहोत ) का अर्थ ठीक नहीं बैठता है। संभव है 'अहिंगय' ( अधिगत) ही भूलसे 'अमहिय' लिखा गया हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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