Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 58
________________ २५० जैनहितैषी [ भाग १३ श्रीदेवसेनाचार्य संकलित दर्शनसार । --- पणमिय वीरजिणिंदं सुरसेणणमंसियं विमलणाणं । वोच्छं दसणसारं जह कहियं पुव्वस्तरीहिं ॥१॥ प्रणम्य वीरजिनेन्द्रं सुरसेननमस्कृतं विमलज्ञानम् । वक्ष्ये दर्शनसारं यथा कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १ ॥ अर्थ-जिनका ज्ञान निर्मल है और देवसमूह जिन्हें नमस्कार करते हैं, उन महावी भगवानको प्रणाम करके, मैं पूर्वाचार्योंके कथनानुसार 'दर्शनसार ' अर्थात् दर्शनों या जुदा जुद मतोंका सार कहता हूँ। भरहे तित्थथराणं पणमियदेविंदणागगरुडानाम् । समएसु होंति केई मिच्छत्तपवट्टगा जीवा ॥२॥ . भरते तीर्थकराणां प्रणमितदेवन्द्रनागगरुडानाम् । समयेषु भवन्ति केचित् मिथ्यात्वप्रवर्तका जीवाः ॥ २ ॥ अर्थ-इस भारतवर्षमैं, इन्द्र-नागेन्द्र-गरुडेन्द्र द्वारा पूजित तीर्थंकरोंके समयोंमें ( धर्मत में ) कितने ही मनुष्य मिथ्यामतोंके प्रवर्तक होते हैं । मतप्रर्वतकोंके मुखियाकी उत्पत्ति । उसहजिणपुत्तपुत्तो मिच्छत्तकलंकिदो महामोहो । - सव्वेसि भट्टाणं धुरि गणिओ पुव्वमूरीहिं ॥३॥ ऋषभजिनपुत्रपुत्रो मिथ्यात्वकलङ्कितो महामोहः । सर्वेषां भट्टानां धुरि गणितः पूर्वसूरिभिः ॥ ३ ॥ अर्थ---पूर्वाचार्यों के द्वारा, भगवान ऋषभदेवका महामोही और मिथ्याती पोता ' मरीचि तमाम दार्शनिकों या मतप्रवर्तकोंका अगुआ गिना गया है । तेण य कयं विचित्तं दंसणरूवं संजुत्तिसंकलियं । तम्हा इयराणं पुण समए तं हाणिबिडिगयं ॥४॥ तेन च कृतं विचित्रं दर्शनरूपं सयुक्तिसंकलितम । तस्मादितराणां पुनः समये तद्धानिवृद्धिगतम् ॥ ४ ॥ क पुस्तकमें 'समुत्तिसंकलिय' पाठ है । परन्तु इन दोनों ही पाठोंका वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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