Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ अङ्क ५-६] चौर। aanwar.Munaamanawware की। हिन्दु, बौद्ध, जैन आदि जितने धर्म चोर। भारतवर्षकी मिट्टी पर जमाये गये हैं और यहाँके (ले. श्रीयुत पं० शिवनारायण द्विवेदी।) जलवायुसे वर्द्धित तथा विकसित हुए हैं उन सबमें । चाहे जैसे हो जानकीको बचाना ही होगा। इस प्रकारकी समानताओंका रहना अनिवार्य है-- " "वह मुझे संसारमें अकेला छोड़ जायगी,प्रेमवे अवश्य रहेंगी। पर इससे उनकी विशेषतायें रहित कर जायगी तो फिर मेरे जीवनमें रह ही क्या नहीं मिट सकतीं । मूल बातें तीनोंमें एकसी हो जायगा ? फिर तो मैं केवल कंगाल, केवल दीन सकती हैं, पर उनके स्वरूपमें तीनोंके पृथक्त्वके बन जाऊँगा। नहीं, जैसे होगा उसे बचाऊँगा। अनुसार अन्तर अवश्य होगा । हिन्दू धर्मका अब तक मेरे साथ, केवल मेरा मुँह देखअपरिग्रह और जैनधर्मका अपरिग्रह शब्दसादृश्य कर उसने संसारके सब दुःख चुपचाप सहे । रखने पर भी विशेषता रखता है । जैनसाधु दरिद्रतासे हताश होकर मुझे जब चारों ओर तिलतुषमात्र परिग्रह नहीं रखता, यहाँ तक कि केवल अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता था; वस्त्र तक छोड़ देता है । पर हिन्दूधर्मके साधुके तब वह धीरे धीरे हँसती हुई मानों मुझे प्रकाश लिए इतना त्याग आवश्यक नहीं है। जैनसाधुकी और आशा देती थी । वह अपने स्नेह, यत्न और अहिंसा चरमसीमाको पहुँची हुई होती है । वे प्रेमसे मेरे मृत शरीरमें नई संजीवनी शक्ति ढाल अपने निमित्त बनाये हुए भोजनका लेना भी दूषित देती थी। सचमुच, जो कहीं वह न होती तो समझते हैं । पर हिन्दू साधु कन्दमूलको अपने मैं निराश होकर अब तक कभीका आत्महत्या हाथसे पकाकर खा सकता है । हिन्दू धर्म भले ही कर डालता ! कर्मसिद्धान्तकी कुछ बातोंको मानता हो; पर इतने दिन ठोकरें खानेके बाद आशाकी एक कर्मसिद्धान्तको एक सम्पूर्ण सुघटित रूपमें जैन- किरण दिखाई दी है, पर तकदीरका यह कैसा धर्मने ही खड़ा करके दिखलाया है । और जन- खेल है । मेरे दुःखमें जिसने अपना कलेजा बिछा धर्ममें जब सारा ही कर्तृत्व कर्मोको दे रक्खा है, दिया था, परमात्मा ! क्या मेरे सुखसे प्रसन्नतब उसके लिए यह अनिवार्य भी था कि वह इस ताके साथ एक बार हँसना भी उसके भाग्यविषयको अन्तिम सीमा तक पहुँचा दे । हिन्दु. में नहीं है ? हाय क्या वह दुख-ही-दुख में मुझसे ओंके यहाँ यह विषय अच्छी तरह पल्लवित नहीं सदा सर्वदाके लिए बिदा हो जायगी ? और हुआ। क्योंकि वहाँ ईश्वरके कारण कर्म पर मैं अपनी चिर प्रसन्नता खोकर कलेजे पर अधिक निर्भर रहनेकी आवश्यकता नहीं । इसी पत्थर रखे हुए देखूगा ? नहीं, ऐसा नहीं तरह और और बातोंके विषयमें भी समझना हो सकता । नहींचाहिए । गरज यह कि एक देशमें उत्पन्न हुए पर करूँ क्या ? जानकीको बचानेके लिए धर्मोमें बाहरी सादृश्य अवश्य होते हैं; पर इससे अच्छे डाक्टरकी जरूरत है-और डाक्टरके यह न समझ लेना चाहिए कि उनमें भीतरी लिए रुपयोंकी जरूरत है । रुपये कौन देगा? दो अन्तर भी कम होगा । प्रत्येक धर्म जिस मूल दो चार चार करके ही इतना कर्ज हो रहा है कि उद्देश्य या सिद्धान्तको लेकर जन्म लेता है, सब कुछ देने पर भी उद्धार नहीं हो सकता। उसका भीतरी झकाव उसी ओरको सविशेष रहता स्त्रीके लिए दवा नहीं, छोटे पुत्रके लिए भाजन है और उसका यह झुकाव ही उसकी वस्तु है। नहीं । रुपयोंके बिना, जीते हुए भी मौतसे अधिक कष्ट होता है। मेरी ओर नजर करनेवाला कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140