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अङ्क ५-६ ]
करना प्रवृत्ति है। इन्हीं शुभ अशुभ कर्मोंसे आत्माका बन्धन होता है । यदि आश्रवकी जगह प्रवृत्ति, पुण्यपापकी जगह शुभ और अशुभ कर्म, और बन्धकी जगह बन्धन शब्दोंका प्रयोग किया जाय तो हिन्दूमतविचार हो जायगा | जैनशास्त्रज्ञ तो कहेंगे कि पुण्य और पापकर्मो के आस्रवसे जीवका बन्ध होता है, और हिन्दू शास्त्रज्ञ इसी बात को कहेंगे कि शुभ अशुभ कर्म की प्रकृतिसे आत्माका बन्धन होता है । बात एक ही है - चाहे पुण्यपापरूप कर्मों के आस्रवसे जीवका बन्ध कहो, चाहे शुभ अशुभ कद्वारा प्रवृत्तिसे आत्माका बन्धन कहो ।
जैनधर्म और हिन्दूधर्म ।
इस बन्धनके तोढ़नेके लिए जैनमतमें दो उपाय कहे हैं-संवर और निर्जरा । आस्रवकी ..बाराको रोकने का नाम संवर है । इस धारासे पहले आये हुए कर्मोंको विध्वंस करना निर्जरा है | आस्रवको संवरसे रोककर कर्मोंको निर्जराद्वारा विध्वंस करना चाहिए । इसी बात को हिन्दू धर्मवाले कहेंगे कि संसार-प्रवृत्तिको वैराग्यद्वारा रोककर संन्यासादिसे कर्मों का क्षय करना चाहिए ।
जब निर्जरा अथवा संन्यासादिक द्वारा जीवका बन्धन कट जाता है तब जीवको मोक्षकी प्राप्ति होता है । मोक्षका अर्थ बन्धन से छुटकारा पाकर अपनी असली अवस्थाको फिर प्राप्त करना है ! जैनमतके अनुसार मुक्त जीमें व्यक्तिता रहती है । न्यायशास्त्रवालोंका भी यही मत है | वेदान्त और सांख्यशास्त्र के अनुसार मुक्त जीवमें व्यक्तिता नहीं रहती है । मोक्षविषयमें जैनमत, न्याय और वैशेषिक शास्त्र सहमत हैं । जैनधर्ममें ईश्वरको संसारकर्त्ता नहीं माना है । ईश्वर शब्दका प्रयोग उन मुक्त जीबोंके लिए किया है, जिन्हें संसारमें तीर्थंकर कहते हैं, और मुक्त हो जानेके पश्चात् सिद्ध । जैनधर्म, संसारको अनादि मानता है और क
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हता है कि कोई समय ऐसा नहीं था कि जब संसारकी उत्पत्ति हुई हो ।
संसारकी वस्तुओंका नाश अवश्य होता है, परन्तु समष्टिरूपमें संसार अनादिकालसे वैसा ही चला आता है । इस कथनका यह आशय है कि जैसे मनुष्य मरा करते हैं, परन्तु मनुष्यजाति सर्वदासे वैसी ही चली आती है, वैसे ही संसारकी वस्तुओंका नाश तो होता रहता है परन्तु संसारका नाश कभी नहीं होता है । इस विचारसे यह सिद्ध होता है कि संसारोत्पत्ति करनेवालेकी कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिए ईश्वरको संसारकर्त्ता नहीं कहा है । हिन्दूधर्ममें ईश्वरके विषयमें कई मत हैं । वेदान्त, निर्गुण ईश्वरको मानता है, जिसका नाम ब्रह्म है । न्याय और वैशेषिक शास्त्र, सगुण ईश्वरको मानते हैं, और इसे संसारका कर्त्ता भी समझते हैं । ऐसा समझनेका कारण यह है कि वे संसारको उस रूपमें अनादि नहीं मानते, जिसमें जैनशास्त्र मानते हैं । न्याय और वैशेषिक शास्त्रों के अनुसार संसार केवल परमाणुरूपसे अनादि है - व्यक्त रूपसे नहीं ।
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प्रलय के समय समस्त व्यक्त संसार परमाणुरूपमें हो जाता है । प्रलय के पश्चात् उन परमाणुओंको व्यक्त संसारके रूपमें लाना ईश्वरका काम है । क्योंकि ये परमाणु अपने आप किसी दैवी शक्तिकी सहायताके विना, संसार रूप में नहीं आ सकते हैं । यदि जैनमत भी संसारको केवल परमाणुरूपमें ही अनादि मानता और प्रलय को भी मानता तो उसे भी संसारकर्त्ता ईश्वरकी आवश्यकता पड़ती। उसने संसारको व्यक्त रूपसे अनादि माना है और उसका सार्वदेशिक प्रलय नहीं माना है; इस लिए उसे संसारक ईश्वरके मानने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। सांख्यशास्त्र सगुण ईश्वरको नहीं मानता परन्तु वह संसारविषय में परमाणुवादी नहीं हैं,
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