Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 45
________________ अङ्क ५-६ ] ' १ आदि क्षत्रिय वंशका नाश होकर नीच कुलके मनुष्य पृथ्वीका पालन करेंगे; २ प्रजाके लोग व्यन्तरोंको देवता मानकर उनकी पूजा सेवा करेंगे; ३ जैनधर्म आर्यक्षेत्र में न रहकर म्लेच्छ देशोंके निवासियोंमें रहेगा; ४ पंचम काल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे; ५ अवती ब्राह्मण गुणी पात्रोंके समान आदरसत्कार पायँगे । " चन्द्रगुप्तके स्वप्नोंकी जाँच । इस फलकथनमें चौथे स्वमका फल भद्रबाहु चरित्र कथनसे, तीसरेका फल भदबाहुचरित्र और पुण्यास्त्रवके कथनसे और पाँचवें स्वप्रका फल ' राजावलीकथे' को मिलाकर तीनों ही ग्रंथोंके कथनसे विलक्षण और विभिन्न है । आदिपुराण में इन स्वमों के फलका सम्बंध पंचमकाल ( वर्तमान युग ) के ही साथ बतलाया गया है । अर्थात् भरत चक्रवर्तीको सुदूरवर्ती पंचमकालका भविष्य संसूचित करने के लिए ही ये सब स्वम आये थे । यथाः -- " स्वप्नानेवं फलानेतान्विद्धि दूरविपाकिनः । नादोषस्ततः कोपि फलमेषां युगान्तरे ॥ ८० ॥ यह श्लोक श्री जिनसेनाचार्यने भगवान् ऋषदेव मुखसे कहलाया है । भगवान् ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीको हुए आज अब और खर्चे वर्ष ही नहीं, बल्कि कुछ हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरका लम्बा चौड़ा समय कहा जाता है । किसी स्वप्न और उसके १ करीन्द्रकन्धरारूढशाखामृगविलोकनात् । आदि क्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्ष्मां पास्यन्त्यकुलीनकाः ॥ २ प्रनृत्यतां प्रभूतानां भूतानामीक्षणात्प्रजाः । भजेयुर्नाम - कर्माद्यैर्व्यतरान्देवतास्थया ॥ ३ शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात् । प्रच्युत्यार्थनिवासात्स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु ॥ ४ पांसुधूसररत्नौघनिध्यानादृद्धिसत्तमाः नैव प्रादुर्भविष्यन्ति मुनयः पंचमे युगे ॥ ५ शुनोऽर्चितस्य सत्कारैश्वरुभोजनदर्शनात् । गुणवत्पात्रसरकारमा - 'स्यन्त्यत्रतिनो द्विजाः ॥ Jain Education International २३७ फलमें इतने लम्बे चौडे अन्तरालका होना स्वप्नशास्त्रकी दृष्टिसे कहाँतक सत्य और युक्तियुक्त है, इसे तो बड़े बड़े स्वमशास्त्री या केवली भगवान् ही जानें; परन्तु जहाँतक मैंने इस विषयका अध्ययन किया है, उसके आधार पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि स्वप्नों और स्वप्नफलों में इतने अधिक अन्तरालकी व्याप्तिका कोई कथन या नियम किसी भी दूसरी जगह देखने में नहीं आता । श्री दुर्गदेव नामके जैनाचार्य, ११ वीं शताब्दी में बने हुए अपने 'रिष्टसमुच्चय' नामक ग्रंथमें रात्रिके प्रथम द्वितीयादि प्रह आनेवाले स्वप्नोंके फलका मर्यादित समय क्रमशः १० वर्ष, ५ वर्ष, ६ महीने और १० दिन बतलाते हैं । यथा: - " दहवरिसाणि तयद्धं, छम्मासं तं मुणेह दहदियहा 1 जहकमसेो णायव्वं सुवणत्थं स्यणिपहरेहिं ॥ ११४ ॥ इसी प्रकार स्वप्नशास्त्रसम्बधी और भी बहुतसे कथन हैं, जिनसे आदिपुराणके इस कथन की असंगतता पाई जाती है । आश्चर्य नहीं कि श्री जिनसेनाचार्य ने अपने समयकी परिस्थितियोंको लक्ष्य करके और अपने कुछ सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही भविष्यकथनका यह सब ढंग निकाला हो और उन्हीं की देखादेखी पीछेसे रत्ननन्दि आदि ग्रंथकारोंने चंद्रगुप्तके सम्बंध में उसका प्रयोग किया हो । परन्तु कुछ भी हो, इतना जरूर कहना होगा कि जिन स्वप्नोंके आधार पर इतनी बड़ी भविष्यवाणी की गई हो, जिसका देश और समाजकी प्रगति तथा जीवनीशक्ति से बहुत कुछ सम्बंध है, जो अपने संस्कारोंसे जैन समाजमें अकर्मण्यता- शिथिलताका संचार ही नहीं करती बल्कि उसके भवि ष्यको अंधकारमय बनाने के लिए उतारू है, उन स्वनका विषय कुछ कम महत्त्वकी वस्तु नहीं हैं । उनके सम्बंध में इस प्रकारका गोलमाल होना कुछ अर्थ रखता है, और वह उपेक्षा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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