Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ अङ्क ५-६ ] और जीवनका संचार होता है। इसके बाद एक मेरे शरीर से चन्द्रगुप्त के स्वप्नोंकी जाँच । Jain Education International विस्मित प्रबल आज्ञा करो कि व्याधि मात्र बाहर निकल जाय । फिर तुम उसी क्षण किसी प्रकारकी शंका किये बिना ऐसी कल्पना करो कि हमारे शरीरसे एक मलिन श्वास द्वारा वह बाहर निकल रही है । तुम विश्वास रक्खो कि वह अवश्य निकल जायगी। तुम इस तरह एक बार आज्ञाका कैसा प्रभाव पड़ता है, सो देखो। मैं तुम्हें झूठमूठ नहीं चढ़ाता हूँ, वरन मैंने ये सब क्रियायेँ स्वत: अनुभव करके देखी हैं । इस तरह मैंने अपनी व्याधियोंको स्वत: निर्मूल किया है। इसमें आश्चर्य करने योग्य कुछ नहीं है । जो जानता है और जिसे अनुभव प्राप्त हो गया है उसे ये क्रियायें एक खेलके समान सरल हैं। विज्ञानके आश्चर्यजनक प्रयोग अज्ञानियोंको करते हैं, परंतु जो उनके ज्ञाता हैं उनको वे बहुत साधारण प्रतीत होते हैं | विज्ञान दो प्रकारका है । एक आधिभौतिक विज्ञान ( Physical science ) और दूसरा आध्यात्मिक विज्ञान (Spiritual science) | लोक तुम्हें कब्जियतकी बीमारी है । अब तुम सोते समय पेट पर हाथ रखकर आज्ञा करो कि सब मल प्रातःकाल निकलनेके लिए तैयार हो जाय। फिर कल्पना करो कि जठराग्नि, तिल्ली, आँतें इत्यादि सब कर्म कर रहे हैं और मल पृथक हो रहा है । दो चार दिन ऐसा करो और फिर देखो कि उसका क्या परिणाम होता है । हम समझते हैं कि कदाचित दूसरे दिन ही तुमको लाभ दिखाई देगा, परंतु यदि तत्काल लाभ न दिखाई दे तो भी उसे सहसा मत छोड़ो। क्यों कि फलप्राप्तिमें विलम्ब होनेका एक मात्र कारण क्रियामें शिथिलता होना है । क्रियाओंमें दृढ़ श्रद्धा और पूर्णता होते ही फल अवश्य मिलता है - यह आध्या-' · त्मिक तत्त्वका अटल नियम है । इस रीतिके द्वारा तुम हर तरह की व्यधियों को दूर कर सकते हो । सामान्य सूचनायें | जब तुम जल पिओ, तब एकदम शीघ्रता से मत पी जाओ, जिसप्रकार गरम चाय या दूध पीते हो उसी प्रकार धीरे धीरे एक एक घूँट करके पिओ । पानी पीते समय ऐसी भावना करो कि पानीमें जीवन तत्त्व है और वह हमारे भी २३३ तर प्रवेश कर रहा है । प्रत्येक घूँट लेते समय मनमें 'ओम्' का उच्चरण करो । भोजन कर समय भी तुम ऐसी ही कल्पना करो कि मैं प्रत्येक चीजमेंसे पोषक तत्त्वका ग्रहण कर रहा हूँ । वारंवार ओंकारका उच्चारण करो | हमेशा प्रसन्न रहो । चिन्ता और व्यग्रताको कभी मनमें न आने दो। बीमारीकी बातें न कभी करो और न कभी सुनो । तुम्हारे शरीर और मन पर तुम्हारा ही पूरा अधिकार है और किसीका नहीं ! इसको कभी मत भूलो। तुम्हारी इस भावना परमात्मबल है, इसको स्मरण रक्खो । सर्वे सन्तु निरामयाः । * चन्द्रगुप्तके स्वोंकी जाँच | ( लेखक - श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार । ) कहा जाता है कि मौर्यवंशी महाराज जिनकी संख्या १६ है और जिनके फलको सुनकर चंद्रगुप्तको एक समय कुछ स्वप्न आये थे उन्होंने, संसार-देह-भोगों से विरक्त होते हुए, जैनमुनिदीक्षा धारण की थी । भद्रबाहुचरित्र में, रत्ननन्दि नामके आचार्यने इन स्वनोंके नाम इस प्रकार दिये हैं: १ कल्पवृक्षकी शाखाका टूटना; २ सूर्यका अस्त होना; ४ छलनी के समान छिद्रोंवाले चंद्रमाका उदय; ४ बारह फणका सर्प; ५ पीछा लौटता * एक गुजराती निबन्धका अनुवाद | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140