Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 13
________________ पुरोवाक् " माया के मोहक वनकी क्या कहूँ कहानी परदेशी, भय है सुनकर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी ।" श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' को माया की मोहक कहानी कहने में भय था । शायद माया की मोहकता में उलझकर उन्होंने बहुत बड़ी नादानी की थी । डाक्टर बनने का मोह मुझे भी कुछ ऐसा ही था और इसके लिए मैं आठ वर्षां तक उलझा रहा । वे आठ वर्ष एक लम्बी कहानी प्रस्तुत करते हैं, जिसे मैं अपनी नादानी नहीं बल्कि जीवन का संघर्ष समझता हूँ । संघर्ष के क्षण दुःखदायी अवश्य होते हैं पर जीवन-पथ के लिए वे कुछ ऐसे पाथेय प्रदान कर जाते हैं, जिनसे व्यक्ति सर्वदा सुख प्राप्त करता है । अतएव अपनी कहानी सुनाने में मुझे भय नहीं है कि आप हँस देंगे और उसे मैं पूर्णतः नहीं किन्तु आंशिक रूप में आपके समक्ष रखना चाहूँगा । इस बात की आवश्यकता भी मुझे इसलिए जान पड़ती है कि अपने शोध-प्रबन्ध की योजना पर प्रकाश डालने के पश्चात् जिन लोगों के प्रति मुझे आभार व्यक्त करना है वे कोई और नहीं बल्कि मेरी कहानी के पात्र हैं, भले ही उन्होंने अपनी भूमिका चाहे जिस रूप में निभाई हो । सन् १६५६ में का० वि० वि० के दर्शन विभाग से मैं एम० ए० उत्तीर्ण हुआ और बड़ी उमंग के साथ डॉ० चन्द्रधर शर्मा के निरीक्षण में शोधकार्य के लिए इसी विश्वविद्यालय में मैंने प्रार्थना पत्र जमा किया। मुझे पार्श्वनाथ विद्याश्रम की ओर से एक सौ रुपये माह की छात्रवृत्ति देने का आश्वासन दिया गया और पंजीकरण के बाद छात्रवृत्ति मिली भी । कारण, मेरा शोध विषय था 'अहिंसा के धार्मिक एवं दार्शनिक आधार' जो जैनधर्म से संबंधित था । पंजीकरण की सूचना के साथ विश्वविद्यालय कार्यालय ने सुझे डॉ० रमाकान्त त्रिपाठी के निरीक्षण में कार्य करने को आदेश दिया । किन्तु तत्कालीन परिस्थितिवश मैंने जनवरी १६६० से डॉ० शर्मा के निरीक्षण में कार्य प्रारम्भ किया, यद्यपि मेरा पंजीकरण जुलाई १९५६ से ही माना गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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