Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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[ अठारह ]
की है कि प्रत्येक वस्तु अपना कार्य स्वयं करती है, किन्तु सहचर होने मात्र से दूसरी वस्तु को उसका निमित्त कहा जाता है। इस धारणा का खण्डन करते हुए लेखक ने आगम-प्रमाण से सिद्ध किया है कि सहचर होने के कारण नहीं, बल्कि कार्योत्पत्ति के साथ उसका अन्वय-व्यतिरेक होने के कारण वह निमित्त कहलाती है। निमित्त को अकिंचित्कर सिद्ध करने के लिए कथित विद्वानों ने यह प्रतिपादन किया है कि कर्म भी धर्मादि द्रव्यों के समान उदासीन निमित्त हैं, प्रेरक नहीं। लेखक ने इस प्रतिपादन को इस तर्क द्वारा भ्रान्तिपूर्ण ठहराया है कि जो कर्म आत्मा के स्वभाव का घात करें उन्हें धर्मादि द्रव्यों के समान उदासीन कैसे कहा जा सकता है? वे प्रेरक ही नहीं, अपितु आक्रामक और घातक भी हैं।
इन भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याओं और मिथ्याधारणाओं का निराकरण अत्यन्त आवश्यक था। इससे लोग मिथ्या मान्यताओं में फँसने से बच सकेंगे और जो फँस चुके हैं, उन्हें उनसे मुक्त होने की प्रेरणा मिलेगी।
लेखक ने अन्तिम अध्याय में लोगों के निश्चयाभासी (निश्चयैकान्तवादी ) और व्यवहाराभासी ( व्यवहारैकान्तवादी ) बन जाने के कारणों की गवेषणा की है। ये कारण वक्ता और श्रोता दोनों से सम्बन्धित हैं। इनमें से अनेक ऐसे हैं जिन पर बहुतों का ध्यान नहीं गया है। आशा है इन पर ध्यान जाने से वक्ता और श्रोता इनके निराकरण का प्रयास करेंगे।
प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के दीर्घकालीन गहन अध्यवसाय का सुपरिणाम है। ग्रन्थ पूर्णत: आगमानुकूल और ज्ञानवर्धक है। यह जैनसाहित्य के लिए अमूल्य योगदान सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। लेखक ने भाषा को अधिक से अधिक सरल बनाने का प्रयास किया है, ताकि ग्रन्थ का विषय सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य हो सके। मैं प्रोफेसर रतनचन्द्र जी के प्रयास की सराहना करता हूँ और कामना करता हूँ कि वे निरन्तर अध्ययन-लेखन में संलग्न रहते हुए ऐसे अनेक उपहार जैनसाहित्य को प्रदान करें। मेरा मंगल आशीर्वाद उनके साथ है।
जबलपुर २२ जनवरी, १९९७
डॉ. ( पण्डित ) पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
निदेशक श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल पिसनहारी की मढ़िया जबलपुर (म. प्र. )
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