Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
[
सत्रह
]
निश्चयमोक्षमार्ग का साधक क्यों है ? यह प्रश्न जीवों की क्षमता के क्रमिक विकास की ओर संकेत करता है। जैसे बालक की बुद्धि और शारीरिक बल का विकास क्रमश: होता है, वैसे ही जीवों का परद्रव्य की अधीनता से मुक्त होने का सामर्थ्य भी धीरे-धीरे विकसित होता है। जैसे मनुष्य एक-एक सीढ़ी चढ़कर ही ऊपरी मंजिल पर पहुँचता है, वैसे ही साधक थोड़ा-थोड़ा त्याग करते हुए ही सम्पूर्ण त्याग में सफल हो पाता है। अत: जैसे अल्पत्याग पूर्णत्याग का साधक है, वैसे ही व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साधक है। निम्न भूमिका में व्यवहारमोक्षमार्ग कार्यकारी होता है और उच्च भूमिका में निश्चयमोक्षमार्ग। कोई एक ही मार्ग सभी अवस्थाओं में कार्यकारी नहीं होता। यही मनोवैज्ञानिक सत्य मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता का रहस्य है।
ग्रन्थ की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें उन भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याओं और मिथ्याधारणाओं को दृष्टि में लाया गया है जो निश्चय और व्यवहार नयों तथा तत्सम्बद्ध विषयों के बारे में कुछ आधुनिक विद्वानों द्वारा प्रचलित की गयी हैं, तथा आगम के प्रकाश में उनकी परीक्षा और निराकरण किया गया है। यथा, उक्त विद्वानों ने असद्भूतव्यवहारनय को वस्तुधर्म का प्रतिपादक न मानकर, मात्र अन्य वस्तु के धर्म का अन्य वस्तु पर आरोप करनेवाला बतलाया है, जिसका खण्डनकर लेखक ने उसे लक्षणा-व्यंजना द्वारा वस्तुधर्म का ही प्रतिपादक सिद्ध किया है। कथित विद्वानों ने उक्त नय को अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार कहा है, लेखक ने इसे गलत बतलाते हुए उसे श्रुतज्ञानियों और केवलज्ञानियों का व्यवहार निरूपित किया है। उक्त विद्वानों ने निश्चयनय और उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय में परस्परसापेक्षता का निषेध किया है, लेखक ने इसे भ्रान्तिपूर्ण बतलाते हुए परस्परसापेक्षता सिद्ध की है। निर्दिष्ट विद्वानों ने निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में कार्यकारणात्मक ( निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन की सामर्थ्य का जनक ) साध्यसाधकभाव न मानकर साध्यसाधकभाव की गलत व्याख्या करते हुए निश्चयमोक्षमार्ग का सहचर, अबाधक या अनुमापक होने के कारण व्यवहारमोक्षमार्ग को उसका साधक कहा जाना बतलाया है। लेखक ने इन व्याख्याओं की भ्रान्तिपूर्णता स्पष्ट करते हुए उनमें कार्यकारणात्मक साध्यसाधकभाव का प्रतिपादन किया है।
पूर्वोक्त विद्वानों की मान्यता है कि कोई भी वस्तु किसी अन्य वस्तु के कार्य का वास्तव में निमित्त नहीं होती, अपितु उसे उपचार से निमित्त कहा जाता है। लेखक ने इस मान्यता का खण्डन इस तर्क द्वारा किया है कि किसी वस्तु के वास्तव में निमित्त हुए बिना किसी अन्य वस्तु को उपचार से निमित्त नहीं कहा जा सकता। निमित्त के विषय में उक्त विद्वानों ने दूसरी भ्रान्तिपूर्ण धारणा यह प्रचलित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org