Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
[ सोलह ]
दूर करता है और उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश उपर्युक्त शुभोपयोग के सर्वथा मोक्षमार्ग न होने की भ्रान्ति मिटाता है। निश्चयनय द्रव्यदृष्टि से जीव के शुद्धचैतन्यस्वरूप होने के सत्य का बोध कराता है। व्यवहारनय पर्यायदृष्टि से जीव के कर्मबद्ध और मोहरागादि से मलिन होने के सत्य की प्रतीति कराता है। निश्चयनय द्रव्यदृष्टि से आत्मा के पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष के अकर्ता होने की वास्तविकता का अनुभव कराता है, व्यवहारनय पर्यायदृष्टि से इनका कथंचित् कर्त्ता होने का सत्य दृष्टि में लाता है। इसके अतिरिक्त असद्भूतव्यवहारनय हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह आदि पापों तथा इनके परित्यागरूप व्रतादि के अस्तित्व का उपपादन करता है, जो निश्चयनय द्वारा सम्भव नहीं है। इस प्रकार निश्चयनयात्मक उपदेश से जीव को अपने शुद्धस्वरूप और मोक्ष के वास्तविक मार्ग का ज्ञान होता है तथा व्यवहारनयाश्रित उपदेश से अपनी संसारावस्था तथा निश्चयमोक्षमार्ग के निकट पहुँचानेवाले व्यवहारमोक्षमार्ग का ज्ञान होता है। इन ज्ञानों को उपलब्ध कर जीव निश्चयमोक्षमार्ग तक पहुँचने के लिए व्यवहारमोक्षमार्ग पर चलता है और निश्चयमोक्षमार्ग पर पहुँचकर उस पर चलते हुए मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस तरह से निश्चय और व्यवहार नय वस्तुस्वरूप की प्रतिपत्ति और मोक्ष की प्राप्ति कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
चूँकि जीव को वस्तुस्वरूप की प्रतिपत्ति और मोक्षप्राप्ति कराने में निश्चय और व्यवहार नय परस्पर सहयोगी हैं, अत: वे परस्पर सापेक्ष हैं। यह स्पष्टीकरण भी ग्रन्थ में किया गया है।
तीसरी विशेषता यह है कि निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में जो साध्य-साधकभाव है, उसका प्रतिपादन लेखक ने मनोवैज्ञानिक आधार पर किया है। सम्यक्त्वपरक शुभोपयोग और सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग के व्रत, संयम, तप, अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय आदि अनेक अंग हैं। ये अंग मोक्षोपयोगी विशुद्धता के विकास में मनोवैज्ञानिक भूमिका सम्पादित करते हैं। इनसे मन और इन्द्रियों का परद्रव्यों के चिन्तन और व्यसन ( अधीनता ) से छुटकारा पाने का अभ्यास होता है। उनके वे संस्कार क्षीण हो जाते हैं जिनसे परद्रव्येच्छारूप तीव्र संक्लेश-परिणाम उत्पन्न होता है, फलस्वरूप विशद्धता बढ़ती है। बढ़ते-बढ़ते विशुद्धता उस स्तर पर पहुँच जाती है, जहाँ जीव के लिए निश्चयमोक्षमार्ग का अवलम्बन सम्भव हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक आधार पर ही लेखक ने मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता का विवेचन किया है। निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में साध्यसाधकभाव है, इसलिए वे परस्परसापेक्ष हैं। अत: मोक्षमार्ग अनेकान्तात्मक है। व्यवहारमोक्षमार्ग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org