Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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भारतीय दर्शन भी काल की चर्चा करते हैं, किन्तु वे कालवादी नहीं है, क्योंकि वे एक मात्र काल से कार्य की उत्पत्ति नहीं मानते। काल को भारतीय दर्शन में प्रायः साधारण निमित्त कारण माना गया है। वैशेषिक दर्शन इसे द्रव्य मानता है तथा इसे एक, नित्य, व्यापक एवं अमूर्त स्वीकार करता है। उनके अनुसार काल की सिद्धि ज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्व, क्रम, यौगपद्य, चिर, क्षिप्र आदि प्रत्ययों से होती है ।' न्यायदर्शन में मान्य १२ प्रमेयों में काल की गणना नहीं हुई है, किन्तु प्रकारान्तर से न्यायदर्शन में काल को अवश्य स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ मन की सिद्धि करते हुए अक्षपाद गौतम कहते हैं -"युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् । " ( न्यायसूत्र १. १. १६) यहाँ युगपत् शब्द काल का ही बोधक है। एक अन्य स्थल पर दिशा, देश और आकाश के साथ काल शब्द का भी कारणता के सम्बन्ध में प्रयोग किया गया है। " सांख्यदर्शन में काल को आकाश तत्त्व का ही स्वरूप माना गया है। योगदर्शन में क्षण को वास्तविक तथा क्रम को अवास्तविक स्वीकार किया गया है, क्योंकि दो क्षण कभी भी साथ नहीं रहते हैं। पहले वाले क्षण के अनन्तर दूसरे क्षण का होना ही क्रम कहलाता है, इसलिए वर्तमान एक क्षण ही वास्तविक है, पूर्वोत्तर क्षण नहीं | मुहूर्त, अहोरात्र आदि जो क्षण समाहार रूप व्यवहार है वह बुद्धिकल्पित है, वास्तविक नहीं। मीमांसादर्शन में काल का स्वरूप वैशेषिक दर्शन के समान माना गया है, किन्तु वैशेषिक जहाँ काल को अप्रत्यक्ष मानते हैं वहाँ मीमांसक उसे प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं।" अद्वैतवेदान्त में काल को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया है। शुद्धाद्वैत दर्शन में काल को अतीन्द्रिय होने से कार्य से अनुमित स्वीकार किया गया है।' व्याकरणदर्शन में भर्तृहरि के वाक्यपदीय में तृतीयकाण्ड का 'कालसमुद्देश' काल के स्वरूप एवं भेदों की चर्चा से सम्पृक्त है। टीकाकार हेलाराज ने काल को अमूर्त क्रिया के परिच्छेद का हेतु निरूपित किया है - "कालोऽमूर्तक्रिया परिच्छेदहेतुः " " बौद्धदर्शन में भी काल को भूत, वर्तमान एवं भविष्य के रूप में स्वीकार किया गया है तथा क्षणिक पदार्थ की व्याख्या
९ कालः परापरव्यतिकरयौगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् । - प्रशस्तपादभाष्य, द्रव्यनिरूपण दिग्देशकालाकाशेष्वप्येवं प्रसंग: । - न्यायसूत्र २.१.२३
दिक्कालावकाशादिभ्यः । - सांख्यप्रवचनभाष्य, द्वितीय अध्याय, सूत्र १२
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योगभाष्य, योगसूत्र ३.५२ पर
नास्माकं वैशेषिकादिवदप्रत्यक्षः कालः, किन्तु प्रत्यक्ष एव, अस्मिन् क्षणे मयोपलब्ध इत्यनुभवात् । - शास्त्रदीपिका, ५.१.५.५
अतीन्द्रियत्वेन कार्यानुमेयत्वेन च। - प्रस्थानरत्नाकर, पृ० २०२
वाक्यपदीय, कालसमुद्देश, कारिका २ पर हेलाराजकृत प्रकाश व्याख्या ।
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