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. ( ४० ) की कादम्बरी' का स्मरण हो पाता है । भाव व्यंजना दुरूह, संस्कृत की तत्समता और समासात पदावली के प्रयोग से वियोगी हरि की रचना कहींकहीं जटिल हो गई है । इस प्रकार की शैली साधारण जनों की बुद्धि के परे हो जाती है । ऐसी रचनाओं से गद्य-काव्य का एक स्वरूप तो उपस्थित हो जाता है किन्तु पढने वाला केवल शब्द जाल की भूलभुलैयों में पड़ जाता है । और 'विम्ब-ग्रहण' के अात्मानन्द का वह अनुभव नहीं कर पाता । इसीलिए व्यवहारिता और लौकिकता की दृष्टि से वियोगी हरि की गद्य-रचना
शैली उतनी सफल नहीं हुई है जितनी की विद्वानों और मार्मिक व्यक्तियों की दृष्टि से सफल हुई है । सस्कृत शैली के अनुशीलन से वियोगी हरि का गद्य प्रायः अलंकारिक हो गया है । अनुप्रास, यमक इत्यादि अलङ्कारों की वाढ़सी आ गई है । जहाँ एक ओर संस्कृत के वाक्यविन्यास और तत्समता की भरमार दिखाई देती है वहाँ दूसरी ओर उर्दू के चलते शब्दो का प्रयोग भी दिखाई देता है। कहीं-कहीं तो उर्दू शब्दावली के ये अस्थानीय
प्रयोग खटकने वाले भी हैं । और कहीं-कहीं इसीसे स्वाभाविक सरलता भी .. __ आ गई है। वियोगी हरि जी की उक्त शैली-सभी जगह प्रयुक्त नहीं हुई है,
वरन् इनकी कई रचनाओं मे चलती हुई भाषा का भी प्रयोग पाया जाता है। ऐसे स्थल पर भाषा विशेष व्यावहारिक, मधुर, शुद्ध और लालित्यपूर्ण - हुई है । वात यह है कि वियोगी हरि जी एक स्वच्छन्द, भावुक और लहरी लेखक हैं । जैसो लहर आगई, वैसा ही लिखना शुरू कर दिया । आपकी लेखनी में चमत्कार है और 'साहित्यविहार', 'अन्तर्नाद' 'पगली' इत्यादि इनकी कई रचनाएँ हिन्दी साहित्य के लिए गौरव स्वरूप हैं ।
शिवपूजन सहाय मामयिकता का प्रभाव हिन्दी के जिन गद्य शैलीकारों पर पड़ा है । उनमें शिवपूजन वायू का स्थान भी महत्वपूर्ण है । ' भाषा की विशुद्धता इनका प्रधान लक्ष्य है। मुहाविरे और उर्दू शब्दों का मौजू प्रयोग इनकी रचना में पाया जाता है । माधुर्य और योज सम्मिश्रण ऐसे स्थलों पर विशेष